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सम्पादकीय
'भक्तामर' शब्द से आप अवश्य परिचित होगे लेकिन भक्तामर के रहस्यो से आप कितने परिचित हैं इसका मुझे पता नही और न ही इसका पता है कि इसके पारिभाषिक अर्थ से आप कितने परिचित हैं।
कुछ शब्द दो प्रकार के अर्थों की अभिव्यक्ति देते हैं- एक शाब्दिक अर्थ, दूसरा पारिभाषिक अर्थ। पारिभाषिक अर्थ का ज्ञान गुरु के बिना सहज नही है । गुरु या आचार्य से जब तक उसका ज्ञान नही किया जाता है तब तक उसका रहस्य अनावृत नही होता ।
दो शब्दो के योग से इस शब्द की रचना हुई है - भक्त+अमर। इसमे भक्त और अमर शब्द के शाब्दिक और रूढ़िगत अर्थ तो आपने कई बार सुने या पढ़े होगे । परन्तु, परम आदरणीय साध्वी डॉ0 दिव्यप्रभाजी ने किसी विशेष अनुग्रह से इन शब्दो के पारिभाषिक एव पारमार्थिक अर्थ प्राप्त किये हैं।
भक्त याने जीव- आत्मा और अमर याने वे जिनकी कभी मृत्यु नही होती अर्थात् परमात्मा । भक्तामर शब्द की इस व्याख्या को इन्होने स्तोत्र मे यथास्थान व्याख्यायित कर हमें वास्तविकता से परिचित कराया है। इतिहास के अनुसार समय, स्थान और स्थिति के कारण अर्थों की परिभाषाये बदलती रही हैं। ऐसे ही कुछ कारण थे जो भक्तामर स्तोत्र की मौलिक अर्थ विवेचना परिस्थिति के प्रभाव मे परिवर्तित होती रही। देश और काल के प्रभाव में शब्दार्थों ने करवट बदली और हम जैन पारिभाषिक शब्दावलि से कई गुना दूर निकल गये ।
जैसे सामान्यत' सुरगुरु शब्द का वृहस्पति अर्थ जैन परपरा को कैसे मान्य हो सकता है ? देवताओ के प्रकारो मे इनका कहाँ स्थान है ? कल्पात शब्द का युगान्त या कालपरिवर्तन अर्थ जैन अर्थ- परपरा के मापदंड में कैसे सही माना जाएगा? ऐसे कई शब्द हैं जो मात्र वैदिक परपरा की मान्यताओ की पुष्टि का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । साध्वी डॉ० दिव्यप्रभाजी अपने प्रवचनों मे इन शब्दों के जैन परपरागत मौलिक अर्थ प्रस्तुत कर एक रूढ़िगत मान्यता का वास्तविक निराकरण प्रस्तुत करती है । वृत्ति या व्याख्या के अनुसार इनकी पुष्टि न भी हो, परन्तु आगम से ये अर्थ अछूते नही हैं। इस प्रकार इन प्रवचनो से समाज को पुरातन के साथ नूतन दिशा का आलोक मिलने की सभावना है। वर्तमान समाज की जैन परिभाषा की जिज्ञासा को इससे काफी पुष्टि मिलती है।
समाज की जिज्ञासा को देखते हुए और श्रीमान् उमरावमल जी सा चोरड़िया के विशेष आग्रह से मुझे इसके सम्पादन का कार्यभार सौपा गया।
ܠܫܩܐ