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900 भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
१४. अनगकेतुम्
१५
१६
योगीश्वरम्
विदितयोगम्
१७
१८. एकम्
१९. ज्ञानस्वरूपम्
२०. अमलम् प्रवदन्ति
अनेकम्
२१ विबुधार्चित
बुद्धिबोधात्
त्वम् एव बुद्ध
२२. भुवनत्रयशकरत्वात्
२३. धीर !
त्वम् शंकर. (असि)
शिवमार्ग विधे
विधानात्
बुद्धस्त्वमेवविबुधार्चितबुद्धिबोधात्,
त्व शंकरोऽसि भुवनत्रय - शकरत्वात् । धातासि धीर । शिवमार्गविधेर्विधानात्,
धाता असि
-
- योगीश्वर, सयोगी केवली
-
२४. त्वम् एव
व्यक्तम्
पुरुषोत्तम
असि
-
व्यक्तं त्वमेव भगवन् । पुरुषोत्तमोऽसि ॥ २५ ॥
1
- एक,
- ज्ञानस्वरूप, ज्ञानमय,
- निर्मल, कर्म-मल रहित
कहते हैं
-
—
कामदेव को नाश करने के लिए उससे बढ़कर केतु समान
- गणधरो, विबुधजनो, विद्वानो द्वारा पूजित हे परमात्मा ।
ज्ञान के विकास से, ज्ञान के प्रकाश से
-
योगवेत्ता, योग विशारद, योग को अच्छी
तरह परखने वाला या जानने वाला
अनेक, सहस्र नामधारी अद्वितीय
-
―
तुम ही शकर (हो), कल्याणकारी हो ।
- हे धैर्य धारण करनेवाले प्रभो ।
-
-
मोक्ष मार्ग की विधि के
-
- विधान करने से अर्थात् प्रतिपादन करने
से
―
केवलज्ञानी
तुम ही बुद्ध हो ।
तीनो लोको के (भव्यात्माओ को ) सम शम करने से ।
विधाता हो ।
ही
तुम
- प्रकट रूप से
- पुरुषोत्तम
- हो ।