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मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र
कवर था और उस पर सरस्वती का छपा हुआ रंगीन चित्र था। युवक के हाथ में से मैंने उस पत्रिका को लिया और अंदर के कुछ पन्ने उलटने लगा तो उसमें कई प्रकार के चित्र भी थे और सुन्दर अक्षरो में छपे हुये छोटे बड़े लेख भी थे। मेरी जिज्ञासा उस पत्रिका को पढने की हुई और मैंने वह पत्रिका उस युवक को कुछ समय मेरे पास रखने को कहा । दो तीन दिन में मैंने उस पत्रिका के बहुत से लेख पढ़ डाले और अकस्मात वैसे लेखों को पढने की मेरी जिज्ञासा बलवती हो गई। दूसरी बार जब वह युवक इस पत्रिका के कुछ और भी । तद्नुसार उसने पत्रिका के ज्यों ज्यों मैं सरस्वती के उन
मेरे पास आया तो मैंने उससे कहा कि अव तुम्हारे पास हो तो मुझे ला दो कुछ पिछले पांच सात अङ्क ला दिये । अकों को पढ़ता गया त्यों-त्यों मेरो पढ़ने को भूख बढ़ती गई ।
सुव्यवस्थित लिखी गई हिन्दी भाषा का परिचय उस समय से मुझे होने लगा । मन में यह एक अज्ञात कामना उत्पन्न हुई कि मैं भी अपने जीवन में कभी इस भाषा में ऐसे लेख लिखने की शक्ति प्रौर योग्यता प्राप्त कर सकूंगा ? .......
मैं धीरे धीरे अपनी कुछ आभ्यासिक योग्यता बढ़ाने का प्रयत्न करता रहा। बाद के वर्षों में मुझे गुजरात के प्रसिद्ध पुरातन शहर पाटन में रहने का सुयोग मिला। उस समय वहां पर जैन सम्प्रदाय के विशिष्ठ सम्मान्य वयोवृद्ध और ज्ञानोपासक जैन मुनिवर की चरणसेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इन मुनि महाराज का धन्यनाम प्रवर्तक पदधारक श्री कान्तिविजयजी था । ये मुनिवर साहित्य के और खासकर इतिहास के बड़े रसज्ञ थे। इनके पास गुजराती भाषा मे प्रसिद्ध होने वाले कई मासिक पत्र श्रादि भाते रहते थे, जिनको पढ़ने का मुझे मुयोग मिल जाता था । यों ये हिन्दी भाषा में लिखित इतिहास विषयक पुस्तकों के पढ़ने की भी रुचि रखते थे। उस समय तक मैंने हिन्दी भाषा का कुछ विशेष कर लिया था और कुछ टूटे 'फ्रूटे विचारों को लेखवद्ध
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परिचय प्राप्त करने का भी
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