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- आवश्यकताओ को बढाते जाएंगे तो उनका कही अन्त नही होगा। वे तो अन्तरिक्ष के समान अनन्त हैं। एक आवश्यकता की पूर्ति दूसरी को जन्म दे जाती है। इस प्रकार से यह सिलसिला चलता ही रहता है अनवरत रूप से, जब तक कि इस पर सन्तोप अथवा त्याग का नियत्रण नही होता । अत्यधिक आवश्यकताओ से आर्थिक सकट, और इनकी आपूर्ति न हो पाने के कारण मानसिक तनाव पैदा होगा। जैसे भी जिस भी साधन से पैसा इकठ्ठा करना, यह तृष्णा का विषचक्र जीवन को नष्ट कर देता है । अधिक भोग अधिक उत्पादन यह पश्चिम की सस्कृति है । भारतीय सस्कृति का स्वर है अधिक उत्पादन एव अधिक त्याग । यहाँ भोग को अवकाश नही। मर्यादाहीन अधिक आशा-आकांक्षाओ, तृष्णाओ को त्याग उत्पन्न ही नही होने देता। जहां त्यागहीन भोग है वही पर तृष्णाओ का, इच्छाओ का आधिक्य है। जहां त्याग है वहां इन पर नियत्रण है। यही सुख का साधन भी है।
८८ चिन्तन-कण