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स्वतन्त्रता मनुष्य की सबसे बडी और सबसे सच्ची कामना है । वह किसी भी स्थिति मे परतन्त्रता को स्वीकार करना नही चाहता । स्वातन्त्र्य प्रियता मानव का स्वभाव है । अतः किसी को किसी भी प्रकार से परतन्त्र रखना पाप हैं, मानवता से परे की बात है । परतन्त्रता विचारो और परम्पराओ की भी होती है । अपने विचारो को प्रकट करने का मानव मात्र का अधिकार है, किन्तु अपने विचारो को बलात् दूसरो पर थोप कर उन्हे अपना विचारानुगामी बनाना यह वैचारिक परतन्त्रता है । यहाँ मनुष्य का अपना मुक्त चिन्तन किसी दूसरे के द्वारा निर्मित सीमा - रेखाओ मे आबद्ध हो जाता है । उसकी वैचारिक स्वतन्त्रता दब जाती है बलात् थोपे गए विचारो द्वारा । अधिकाश यह देखने मे आता हैं कि मनुष्य एक ववे बधाए विचार-जगत मे ही घूमता रहता है । उसकी स्वय की अनुभूतियाँ प्रसुप्त कर दी जाती हैं । वह परम्परागत चलते आए विचारो को अपने ही विचार समझने लग जाता हैं । फलत नव चिन्तन से हम महरूम रह जाते हैं । यदि कोई चिन्तन की स्वतन्त्रता को स्वीकारता भी है तो उसे अनेकानेक विद्रोही एव नास्तिक आदि टाईटिलो से विभूषित कर दिया जाता है, तथा कथित विचारक कहे जाने वालो द्वारा । मनुष्य की वैचारिक स्वतन्त्रता का हनन हिंसा की श्रेणी में आ जाता है । हमे यह अधिकार नही है कि हम दूसरे व्यक्ति को अपनी इच्छा या विचारो का बलात् दास बनाएँ ।
७४ | चिन्तन-कण