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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। संहकार और समन्वय की भावना इस की मूलगत वृत्ति प्रवृत्ति है। एक दूसरे का पारस्परिक सहयोग ले-देकर ही जीवन-व्यापार चलाया जा सकता है । एकान्तिक जीवन व्यतीत करना, सामान्य मनुष्य के वस की वात नही । उसे किसी न किसी रूप मे सामाजिकता मे स्वय को बांधना ही होगा । समन्वय का सम्वल लेकर चलना ही होगा । नही तो व्यक्ति जीवन मे पिछड़ जाएगा। सुई और धागे मे समन्वय होता है, तभी फटे वस्त्रो को सीने का कार्य हो सकता है । सूई धागे की सार्थकता भी तभी है, जब दोनो मिलकर परस्पर सहकार करें। आप अनुभव करते हैं कि अकेली सूई ats का कार्य नही कर सकती और न ही अकेला धागा जोडने मे समर्थ हो सकता है । इसलिए सहकार एव समन्वय की भावना का उपयोग मानव समुदाय के लिए अत्यन्त हितावह है । इसका प्रयोगात्मक रूप जीवन को अखण्ड प्रकाश एवं अमित आनन्द से भर देता है ।
६२ | चिन्तन-कण