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कभी-कभी प्रवुद्ध चेता व्यक्तियो की ओर से प्रश्न आता है कि धर्म क्या है ? वह एक सगठन है अथवा साधना ? इस सम्बन्ध मे इतना ही कहना है कि धर्म जव सगठित होना प्रारम्भ हो जाता है तो वह सम्प्रदाय का रूप धारण कर लेता है। सम्प्रदाय की बाह्य जीवन मे थोडी-बहुत उपयोगिता बेशक हो सकती है, परन्तु आन्तरिक जीवन में यह सर्वथा अनुपयोगी है। धर्म है, वैयक्तिक चेतना का अन्तर्मुखी जागरण । जो जीवन को प्रकाश से भर देता है । जहाँ भटक जाने को अवकाश ही नही है । सम्प्रदाय है भीड का शोपण । धर्म के लिए चेतना का भीड से, समूह से सर्वथा स्वतन्त्र होना आवश्यक है । चेतना की भीड से स्वतन्त्र अथवा पृथक होने की प्रक्रिया विशेष ही साधना है। 0
१२ | चिन्तन-कण