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सर्वतोमुखो व्यक्तित्व "अाज से करीब ढाई हजार वर्ष पहले छूत-अद्भूत के सम्बन्ध में भारत की अव से भी कहीं अधिक और बहुत अधिक भयंकर स्थिति थी। शूद्रों की छाया तक से घृणा की जाती थी और उनका मुंह देखना भी बड़ा भारी पाप समझा जाता था। उन्हें सार्वजनिक धर्म-स्थानों एवं सभात्रों में जाने का अधिकार नहीं था। वे और तो क्या, जिन रास्तों पर पशु चल सकते हैं, उन पर भी नहीं चल सकते थे। वेद आदि धर्म-शास्त्र पढ़ने तो दूर रहे, विचारे सुन भी नहीं सकते थे । यदि किसी अभागे ने राह चलते हुए कहीं भूल से सुन भी लिया, तो उसी समय धर्म के नाम पर दुहाई मच जाती थी, और धर्म के ठेकेदारों द्वारा उसके कानों में उकलता हुआ सीसा गलवा कर भरवा दिया जाता था। हा, कितना घोर अत्याचार ! राक्षसता की हद हो गई। वात यह थी कि जातिवाद का वोलवाला था, धर्म के नाम पर अधर्म का विप-वृक्ष सींचा जा रहा था।
उसी समय क्षत्रिय कुण्ड नगर में राजा सिद्धार्थ के यहाँ भगवान् महावीर का अवतार हुआ। इन्होंने अपनी तीस वर्ष की अवस्था मेंभरपूर जवानी में राज्य वैभव को ठुकरा कर मुनि-पद धारण कर लिया और कैवल्य प्राप्त होते ही छूताछूत के विरुद्ध बगावत का झंडा खड़ा कर दिया। अन्त्यज और अस्पृश्य कहलाने वाले व्यक्तियों को उन्होंने अपने संघ में वही स्थान दिया, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उच्च कुलों के लोगों का था।
भगवान् महावीर के इस युगान्तकारी विधान से ब्राह्मणों एवं दूसरे उच्च वर्गों के लोगों में बड़ी भारी खलबली मची। फलतः उन्होंने उसका यथाशक्य घोर विरोध भी किया, परन्तु भगवान् महावीर अादि से अन्त तक अपने प्रण पर अपने सिद्धान्त पर अटल रहे, उन्होंने इस विरोध की तनिक भी परवाह न की। अन्ततोगत्वा प्रभु ने हिमाचल से लेकर कन्याकुमारी तक समभाव की विजय दुन्दुभि वजा दी और अस्पृश्यता के कतई पैर उखाड़ दिए। विरोधी लोग देखते ही रह गए, उनका विरोध कुछ भी कारगर न हो सका।
भगवान महावीर की व्याख्यान सभा में, जिसे समवसरण कहते हैं, आने वाले श्रोताओं के लिए कोई भी भेद-भाव नहीं था। उनके