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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व और आश्चर्य है-यह सव होते हुए भी इन्हें साधु-संघ के माता-पिता होने का गर्व है ! साधु-संघ के प्रति उनके मन में कितनी सद्भावना है ? यह तो इनके लेखों, भाषणों और कारनामों से स्पष्टतः हर कोई देख सकता है।
मैं नहीं समझता, यह कार्य-पद्धति जैन-धर्म का क्या हित करती है ? साधु-संघ का क्या भला करती है ? इस प्रकार साधु-संघ को बदनाम करने में कुछ लोगों को क्या मजा आता है ? यह ठीक है, कुछ साधु भूले करते हैं, गलती करते हैं, उनको अपने दोषों का दण्ड मिलना ही चाहिए। मैं शत-प्रतिशत साधु-संघ के शुद्धिकरण का पक्ष, पाती हूँ। दूषित जीवन, वह भी साधु का, वस्तुतः कलंक की वात है। किन्तु एक बात है, इस सम्बन्ध में किसी वैधानिक मार्ग का अनुसरण होना आवश्यक है। साधु-संघ पर शासन करने वाले आचार्य हैं, अन्य अधिकारी मुनि हैं, उनके द्वारा कार्यवाही होनी चाहिए। वे दोपी को प्रायश्चित्त दें। यदि कोई प्रायश्चित्त स्वीकार न करे, तो उसे संघ से बहिष्कृत घोपित करें। पर, साधु-संघ पर अवैधानिक कुशासन न हो । यदि इस सम्बन्ध में कुछ भी ठीक तरह से नहीं सोचा गया, तो मैं पूछता हूँ, फिर प्राचार्य का अपना क्या मूल्य है ? अन्य अधिकारी मुनियों के अधिकारों का क्या अस्तित्व है ? यह. आचार्य एवं अन्य अधिकारी मुनियों का स्पष्ट अपमान नहीं, तो और क्या है ? इतना ही नहीं, यह तो जिनागम का अपमान है। आगम नहीं कहते, कि ऐसा किया जाए। आगम तो साधु-संघ का शासन . साधुओं के हाथ में देते हैं । अन्य किसी के हाथ में साधु-संघ का अनुशासन नहीं हो सकता।" .
-'तरुण जैन' में प्रकाशित 'सुधारवादी दृष्टिकोण :
श्रमण-संस्कृति के मूल आधार हैं-त्याग, तपस्या और वैराग्य । श्रमण-संस्कृति में वाह्याचार की शुद्धता को जितना वल मिलता है, अन्तर्मन की पवित्रता को भी उतना ही महत्व दिया गया है। श्रमणसंस्कृति भोगवादी नहीं-त्याग, तपस्या और वैराग्य की संस्कृति है। इसके मूल में भोग नहीं, त्याग है। यह भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। श्रमण-संस्कृति क्या है ? भोगवाद पर त्यागवाद की विजय ।