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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
है, कि न वह अपने पर अन्याय को सहन करता है, और न दूसरों पर होने वाले अन्याय को देख ही सकता है। यह व्यक्तित्व इतना शक्तिमान् है, कि उसके सामने अाकर विरोधी भी अनुरोधी बन जाता है । इस व्यक्तित्व में इतना प्रवल तेजस्, ओजस् एवं वर्चस् है, कि किसी के भी अन्याय और अनुचित दवाव को वह कथमपि सहन नहीं कर सकता।
भीनासर सम्मेलन के बाद में कुछ श्रावकों ने साधुओं पर हुकूमत करने के लिए एक 'अनुशासन समिति' की मांग की थी, जिसका उद्देश्य था-साधुनों पर श्रावकों का शासन, गृहस्थों की हुकूमत । कुछ राह भूले सांप्रदायिक मानस के श्रावकों ने ही अनुशासन के नाम पर यह सव स्वाँग खेला था ।
आश्चर्य है, कि इस अनुचित एवं अयोग्य मांग के विरोध में किसी भी सन्त ने विरोध नहीं किया। सब पर जैसे श्रावकों का आतंक छा गया था। परन्तु उपाध्याय अमर मुनि जी ने अपने वक्तव्य के द्वारा उस अनुचित एवं सर्वथा अयोग्य मांग का डटकर विरोध किया। उस वक्तव्य में आपके स्वतंत्र व्यक्तित्य का वास्तविक संदर्शन होता है। उस वक्तव्य का कुछ अंश मैं यहाँ पर दे रहा हूँ, जिससे कि पाठक कवि जी महाराज के स्वतंत्र व्यक्तित्व का कुछ याभास पा सकेंगे। उक्त वक्तव्य का शीर्षक है-'अनुशासन के नये घेरे में'--"साधु-संघ, सावधान !" वह वक्तव्य इस प्रकार है
____ "भारत के सांस्कृतिक इतिहास में साधु-सन्त का महत्वपूर्ण स्थान है। यदि भारतीय इतिहास में से साधु-जीवन के उज्ज्वल पृष्ठों को अलग कर दिया जाए, तो एक विचारक की भाषा में-अंधकार के अतिरिक्त यहाँ प्रकाश की एक किरण भी न मिलेगी।
एक दिन वह था, जब साधु-संघ सर्वतोभावेन अपनी नीतिरीति पर स्वतन्त्र था । वह स्वयं ही अपना शासक था और स्वयं ही अपना शासित । वह अपने निर्णय आप करता था और आप ही उन पर निर्वाध भाव से उन्मुक्त गज-गति से चलता था। उस पर न किसी का दवाव था, और न किसी का शासन ही था । फलतः उसके निर्णय में किसी का कोई दखल न था। हम प्राचीन आगम ग्रन्थों, भाष्यों, चूणियों और टीकाओं में साधु-संघ की इस आत्म-नियन्त्रित