________________
२०० . व्यक्तित्व और कृतित्व संस्कृति में 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की मूल भावना विकसित हो रही है ? व्यक्ति स्वपोपण-वृत्ति से विश्व-पोपण की मनोभूमिका पर उतर रहा है, निराशा के अन्धकार में शुभाशा की किरणें जगमगाती आ रही हैं, प्राणिमात्र के भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन के निम्न धरातल को ऊँचा उठाने के लिए कुछ-न-कुछ सत्प्रयत्न होता रहा है ?" यदि आपके पास इस प्रश्न का उत्तर सच्चे हृदय से 'हाँ' में है, तो आपकी संस्कृति गौरव प्राप्त करने योग्य है। जिसके आदर्श विराट एवं महान् हों, जो जीवन के हर क्षेत्र में व्यापक एवं उदार दृष्टिकोण का समर्थन करती हो, जिसमें मानवता का ऊर्ध्वमुखी विकास अपनी चरम-सीमा को सजीवता के साथ स्पर्श कर सकता हो, वही विश्वजनीन संस्कृति, विश्व-संस्कृति के स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान हो सकती है।
श्रमण-संस्कृति का यह अमर आदर्श है कि-'जो सुख दूसरों को देने में है, वह लेने में नहीं।"
+ . "मैं खास तौर से नवयुवकों से कहूँगा कि भारत का भविष्य आप लोगों से ही चमकने वाला है । अव तक जो हुआ, सो हुया । पर जो आगामी है, उसके विधाता आप हैं। देश को बनाना और विगाड़ना आपके ऊपर निर्भर है। आपके अन्दर जोश है, वीरता की भावना है, लड़ने की शक्ति है, तो हम आपकी कद्र करेंगे। मगर जोश के साथ होश भी पाना चाहिए। इसके विना काम नहीं चलेगा। मुझे काँग्रेस के एक अन्तरंग सज्जन ने बतलाया था कि एक बार गांधी जी ने कहा था-'तुम्हारे भीतर जोश है। तुम देश का निर्माण करोगे। पर इस बूढ़े के होश की भी तो जरूरत पड़ेगी न ?' जव जोश और होश-दोनों का सामंजस्य होता है, तभी जीवन का सही तौर पर निर्माण होता है। होश हो, पर जोश न हो, काम करने की क्षमता न हो, जीवन लड़खड़ाता हो, हँसता हुआ न हो, तो देश का निर्माण नहीं हो सकता। इसी प्रकार जोश तो हो, मगर होश न हो, काम करने की शक्ति हो, मगर उचित समझदारी न हो, तो वह कोरा जोश आपको और आपके देश को भी ले डूबेगा । जोश आगे बढ़ने वाला कदम है, तो होश रास्ता दिखाने वाला नेत्र है।"