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व्यक्तित्व और कृतित्व
साधक का जीवन एक प्रवहणशील तत्त्व है । उसे वॉच कर रखना भूल होगी । नदी के सतत प्रवहण-शील वेग को किसी क्षुद्र गर्त में वांधकर रख छोड़ने का अर्थ होगा उसमें दुर्गन्ध पैदा करना तथा उसकी सहज स्वच्छता एवं पावनता को नष्ट कर डालना । जीवन वेग को एकान्त उत्सर्ग में वन्द करना, यह भी भूल है और उसे एकान्त अपवाद में कैद करना, यह भी चूक है । जीवन की गति को किसी भी एकान्त पक्ष में बाँध कर रखना, हितकर नहीं । जीवन को वाँध कर रखने में क्या हानि है ? वाँध कर रखने में, संयत करके रखने में तो कोई हानि नहीं है, परन्तु एकान्त विधान और एकान्त निषेव में वाँध रखने में जो हानि है, वह एक भयङ्कर हानि है । यह एक प्रकार से साधना का पक्षाघात है । जिस प्रकार पक्षाघात में जीवन सक्रिय नहीं रहता, उसमें गति नहीं रहती, उसी प्रकार विधि-निपेध के पक्षपातपूर्ण एकान्त ग्राग्रह से भी साधना की सक्रियता नष्ट हो जाती है, उसमें यथोचित गति एवं प्रगति का प्रभाव हो जाता है ।
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