________________
१६८
व्यक्तित्व और कृतित्व कविश्री जी ने सबसे पहला जीवन-चरित्र अपने स्वयं के दादा गुरु पूज्य श्री मोतीलाल जी महाराज का लिखा है-"आदर्श-जीवन"। यह जीवन सन् १९३२ में लिखा गया है। इन उन्तीस वर्षों में लेखक की भाव, भाषा और शैली में बहुत बड़ा अन्तर हो गया है । 'आदर्शजीवन' की भाषा और शैली भले ही आज के युग को पसन्द न आए, परन्तु उस युग को देखते हुए कविश्री जी की भाषा मध, ललित एवं प्रवाहयुक्त है। 'आदर्श-जीवन' के कुछ अंश मैं यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए उद्धृत कर रहा हूँ
___ "मनुष्य के जीवन को सचमुच जीवन वनाने वाली एक वस्तु है, जिसे शिक्षा कहते हैं। शिक्षा वह है, जो मनुप्य के नाम को संसार के कोने-कोने में गुजाती है । शिक्षा वह है, जो मनुष्य को हित-अहित कार्य का पारखी वनाती है। शिक्षा वह है, जो मनुष्य को मनुष्य से देव, और देव से महादेव बनाती है। विना सुन्दर शिक्षा के मनुष्य वास्तविक मनुष्य नहीं बन सकता । शिक्षा-विहीन मनुष्य देखने में मनुष्य दिखाई देते हैं, परन्तु हैं वे वास्तव में विना सींग-पूछ के पशु । अशिक्षित मनुष्य की जीवन-यात्रा सदा कप्ट में ही वीतती है। उसे सुख का आभास स्वप्न में भी नहीं होता । अशिक्षित मनुष्य न घर में बैठने के काम का, न वाहर बैठने के काम का। घर में घर के आदमी उस पर वात-वात पर झाड़-पछाड़ फेंकते रहते हैं, तो बाहर भी वाहर वाले उसकी वात-बात में मिट्टी पलीद करते रहते हैं। अशिक्षित पंच-पंचायत में, सभा-सोसाइटी में, शिक्षित मित्र-मण्डली में बैठने का मुंह नहीं रखता। वह जहाँ जाता है, वहाँ ही जारज की तरह उपहसित होता है।"
__ "अस्तु, पाठको! आपके चरित्र-नायक के माता-पिता कुछ नाम के माता-पिता नहीं थे। वे एक सच्चे माता-पिता थे। उनके विचार उन्नत थे। वे संतति शिक्षा के पूरे पक्षपाती थे । ज्ञान-प्रधान जैन-धर्म की शिक्षा से उनके वास्तविक माता-पिता के हृदय बने थे। उन्होंने अपने शिक्षा सम्बन्धी कर्तव्य का ध्यान रखा । जव चरित्र नायक जी ने सातवें वर्ष में पदार्पण किया, तो पिता ने इन्हें एक सुयोग्य, सच्चरित्री शिक्षक की पाठशाला में पढ़ने बैठा दिया। अव चरित्र-नायक मन लगा