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व्यक्तित्व और कृतित्व 'जीवनी' में जहाँ व्यक्ति के जीवन का पूर्ण विश्लेषण किया जाता है, वहाँ समग्र रूप से उसकी कथा का संश्लिष्ट या संगठित होना भी बड़ा आवश्यक है। 'प्रभावान्वित' अर्थात् प्रभाव की एकता जीवनी में सदैव अपेक्षित होती है। किन्तु जीवनी हर व्यक्ति की नहीं लिखी जाती । विशेष व्यक्तियों के प्रभावशाली जीवन को ही आवार मान कर उनके विचार और सिद्धान्तों का विवेचन किया जाता है, जिससे समाज कुछ सीख सके । ययार्थ और आदर्श-दोनों के तत्त्व जिस जीवनी से पाठक को मिल सकें, वही श्रेष्ठ जीवनी मानी जाती है । हर एक मनुष्य की जीवनी न तो इतनी महत्त्वपूर्ण होती है, और न ही पाठकों को आकृट कर सकती है.। महापुरुष युग-प्रवत्तक होते हैं । अतः उनकी जीवनी में उस युग का प्रतिविम्ब भी झलकता । है । जीवन-चरित्र की तरह जीवनी भी गद्य का एक रूप है। इसमें किसी भी विशिष्ट व्यक्ति के जीवन की महत्त्वपूर्ण एवं पादर्श घटनाओं का उल्लेख किया जाता है।
कविश्री जी अपनी साहित्य-साधना में समय-समय पर विभिन्न महापुरुपों के जीवन पर कुछ लिखते रहे हैं। ये लेख उनकी लेखन-शैली के श्रेष्ठ नमूने हैं। भगवान् ऋपभ देव, भगवान् नेमिनाथ, भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर तथा कुछ प्राचार्यों पर भी उन्होंने समय-समय पर संक्षिप्त जीवनी लिखी हैं। परन्तु उनकी जीवनी-कला की शैली का सबसे ताजा नमूना-'महावीर : सिद्धान्त और उपदेश" है। प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने भगवान् महावीर की जीवनी दी है । यह जीवनी भाव, भापा और शैली की दृष्टि से बहुत सुन्दर है । पाठकों ने इस पुरतक को वहुत पसन्द किया है। सन् १९६० का यह प्रकाशन है। जीवनी की भापा और शैली कैसी होनी चाहिए, इसका परिज्ञान पाठकों को उक्त पुस्तक के अव्ययन से भली-भाँति लग जाएगा । जीवनचरित्र की भांति कविश्री जी की जीवन-कला भी समाज में और विशेपतः साहित्य जगत् में अादर प्राप्त कर चुकी है । पाठकों के परिज्ञान के लिए मैं कविश्री जी की जीवनी-कला के कुछ उद्धरण यहाँ दे रहा हूँ ।
- "चैत्र का परम पावन महीना था । सर्वसिद्धा त्रयोदशी का गुभ दिन था । भगवान् का सिद्धार्थ राजा के यहाँ त्रिशला देवी जी के गर्भ से भारत-भूमि पर अवतरण हुआ। यह स्वर्ण दिन जैन-इतिहास में