________________
व्यक्तित्व और कृतित्व
हाँ अवकाश नहीं, क्योंकि वहाँ स्वार्थ और वासना का दमन होता । और धर्म क्या है ? सव के प्रति मङ्गल-भावना । सब के सुख में सुख-बुद्धि और सब के दुःख में दुःख-बुद्धि | समत्व-योग की इस पवित्र भावना को 'धर्म' नाम से कहा गया है । यों मेरे विचार में 'धर्म' और नोति' सिक्के के दो वाजू हैं । दोनों की जीवन-विकास में श्रावश्यकता भी है । यह प्रश्न अलग है कि राजनीति में धर्म और नीति का गठबन्धन कहाँ तक संगत रह सकता है ? विशेषतः आज की राजनीति में जहाँ स्वार्थ और वासना का नग्न ताण्डव नृत्य हो रहा हो, मानवता मर रही हो ।"
x
"धर्म, दर्शन और विज्ञान - परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं प्रथवा एक-दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं ? मानव जीवन के लिए तीनों कहाँ तक उपयोगी हैं ? मैं समझता है कि ये प्रश्न ग्राज नहीं तो कल अवश्य अपना समाधान माँगेंगे — मांग चुके हैं। धर्म और दर्शन में तो ग्राज ही नहीं, युग-युग से साहचर्य रहा है, आज भी है । धर्म का अर्थ है— प्रचार | दर्शन का अर्थ है- विचार | भारतीय धर्मों की प्रत्येक शाखा ने आचार और विचार में, धर्म एवं दर्शन में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया है। गीता में सांख्य बुद्धि और योग कला का सुन्दर समन्वय किया गया है। वौद्धों में ‘हीनयान' और 'महायान'ग्राचार तथा विचार के क्रमिक विकास के वीजभूत हैं । हीनयान धर्म
( आचार) प्रधान रहा, तो महायान - दर्शन (विचार) प्रधान वन गया । 'जैनों में धर्म और दर्शन के नाम पर श्राचार तथा विचार को लेकर सांख्य-योग एवं हीनयान - महायान जैसे स्वतन्त्र विभेद तो नहीं पड़ सके । क्योंकि एकान्त आचार तथा एकान्त विचार जैसी वस्तु अनेकान्त में कथमपि सम्भवित ही न थी । जैन प्राचार्यों ने श्राचार में ग्रहिसा और विचार में अनेकान्त पर विशेष बल दिया अवश्य, फिर भी यहाँ धर्म और दर्शन अपना स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित नहीं कर सके । दोनों का गङ्गा-यमुना रूप ही अनेकान्त में फिट बैठ सकता था । श्रव रही विज्ञान की बात | विज्ञान है क्या ? यदि सत्य का अनुसन्धान ही वास्तव में विज्ञान है, तो वह भी दर्शन की नामान्तर होगा । यदि वहां भेद जैसी कोई केवल इतना भेद किया जा सकता है, कि
.
एक विशेष पद्धति होने की चीज आवश्यक ही है, तो विचार के दो पक्ष होंगे
J