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व्यक्तित्व और कृतित्व "महावीर का उपदेश पूर्णतया सत्य है। हम इसे समझने के लिए आम वोने वाले माली का उदाहरण ले सकते हैं। माली बाग में आम की गुठली बोता है, यहां पांचों कारणों के समन्वय से ही वृक्ष होगा। ग्राम की गुठली में आम पैदा करने का स्वभाव है, परन्तु वोने का और बोकर रक्षा करने का पुरुपार्थ यदि नहीं हो, तो क्या होगा ? वोने का पुरुपार्थ भी कर लिया, परन्तु विना निश्चित काल का परिपाक हुए ग्राम यों ही जल्दी थोड़े ही तैयार हो जाएगा। काल की मर्यादा पूरी होने पर भी यदि शुभ कर्म अनुकूल नहीं है, तो फिर भी आम नहीं लगा सकता। कभी-कभी किनारे आया जहाज भी इव जाता है । अव रही नियति, सो वह तो सब कुछ है ही। आम से आम पैदा होनाप्रकृति का नियम है, इससे कोन इन्कार कर सकता है।"
__"जैन-धर्म की साधना-इच्छा-योग की सावना है, सहज-योग की साधना है । जिस साधना में बल का प्रयोग हो, वह साधना निर्जीव वन जाती है । साधना के महापथ पर अग्रसर होने वाला साधक अपनी शक्ति के अनुरूप ही प्रगति कर सकता है। साधना तो की जाती है, लादी नहीं जा सकती।"
संसार में जैन-धर्म-अहिंसा का, शान्ति का, प्रेम का और मैत्री का अमर सन्देश लेकर आया है। उसका विश्वास प्रेम में है, तलवार में नहीं । उसका धर्म आध्यात्मिकता में है, भौतिकता में नहीं। साधना का मौलिक आधार यहाँ भावना है, श्रद्धा है। आग्रह और बलात्कार को यहां प्रवेश नहीं है । जव साधक जाग उठे, तभी से उसका सवेरा समझा जाता है । सूर्य-रश्मियों के संस्पर्श से कमल खिल उठते हैं। शिष्य के प्रसुन मानस को गुरु जागृत करता है, चलना तो उसका अपना काम है।
___ आगम वाङमय का गम्भीरता से परिशीलन करने वाले मनीषी इस तथ्य को भली-भांति जानते हैं कि परम प्रभु महावीर. प्रत्येक साधक को एक ही मूल मन्त्र देते हैं कि-'जहातुहं देवाणुप्पिया मा पडिबन्धं करेह ।' अर्थात्-'देव वल्लभ मनुष्य ! जिसमें तुझे सुख हो, जिसमें तुझे शान्ति हो, उसी साधना में तू रम जा।' परन्तु एक शर्त नरूरी है-जिस कल्याण-पथ पर चलने का तू निश्चय कर चुका है, उस पर चलने में विलम्ब मत कर, प्रमाद न कर।'