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व्यक्तित्व और कृतित्व भारतीय नारी का यह सुष्छु हृदय किसको मुग्ध नहीं वना देगा? शैव्या अपने वियोग का दुःख भुलाकर हरिश्चन्द्र को स्वर्ण-पुच्छ मृग-शावक की खोज में राज-प्रासाद से वाहर भेज देती है प्रजा-जनों के बीच, नग्न सत्य का रूप देखने, और यह देखने कि नैसर्गिक सुन्दरता राजप्रासाद की सुन्दरता से घट कर नहीं है। राज-प्रासाद की सीमित सुन्दरता किसी एक के लिए है, तो प्रकृति की असीम सौन्दर्य-राशि सर्वजन-सुलभ । प्रकृति की गोद में बैठकर मानव अपने जीवन का सामंजस्य, कर्म की प्रेरणा, सहज भाव से प्राप्त कर सकता है। कविश्री जी की भावना यहाँ सुन हृदय को उत्तेजना देती है
"प्राप्त कर सद्गुण न बन पागल प्रतिष्ठा के लिए, जव खिलेगा फल, खुद अलि-वृन्द प्रा मंडराएगा। फूल-फल से युक्त होकर वृक्ष झुक जाते स्वयं, पाके गौरव-मान कव तू नम्रता दिखलाएगा!
रात-दिन अविराम गति से देख झरना वह रहा, क्या तू अपने लक्ष्य के प्रति यों उछलता जाएगा? दूसरों के हित 'अमर' जल-संग्रही सरवर वनां,
दीन के हित धन लुटाना क्या कभी मन भाएगां!" : हम यहाँ भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि-कवि के रूप में कवि श्री जी को देखने को वाध्य होते हैं-- Domestic Sentiment' ( गार्हस्थ्य-भांव ) में ही वह त्याग की अर्चना हमें सिखाते हैं यह उनकी विशेपता है। यह बात नहीं कि अपने त्याग-पूर्ण जीवन में उन्होंने सांसारिक व्यथा-वेदनाओं पर से अपनी आँखें फिराली हैं, करुणा और दया के अटूट सम्बन्ध ने आपके काव्य और व्यक्तित्व-दोनों को भाव-विकल बनाया है। भाग्य चक में अपनी सारी राज्य-सम्पत्ति विश्वामित्र को दान में देकर हरिश्चन्द्र जव शरद-जलद के समान हल्का 'और निर्धन हो जाता है-दुनियाँ की दृष्टि में वहत ऊपर उठ जाता है। अतीत का विभव-विलास उसके लिए स्वप्न वनकर रह जाता है। वर्तमान में नंगे पैरों उसका अभियान, प्रिया-पुत्र के साथ आत्म-विक्रय के लिए काशी की अोर होता है। भूख की ज्वाला मानव-हृदय को नीच-से-नीच प्रवृत्तियों पर उतार लाती है, मंगर ऐसा वहीं होता है, जहां भूग्व-सुवा का महत्व मानव-मर्यादा से अधिक प्राँका जाता है। ऐसी