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बहुमुखी कृतित्व
" जनता की आंखों के आगे मौत नाचती फिरती थी ।
किन्तु सुदर्शन के मुख पर तो अखिल शान्ति उमड़ती थी । " सेठ सुदर्शन शूली पर चढ़ते हुए भी महामन्त्र परमेष्ठी का जाप करता जा रहा था । महामन्त्र परमेष्ठी के जाप से संसार के सारे बन्धन कट जाते हैं, और उसी के प्रताप से शूली भी सिंहासन बन गई । कवि श्री जी के काव्य में इस प्रसंग का बड़ा ही सरस, सुलभ और सुखद वर्णन हुआ है
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"स्वप्न - लोक की भाँति, लौह शूली का दृश्य विलुप्त हुआ । स्वर्ण-खंभ पर रत्न क्रान्तिमय, स्वर्णासन उद्भूत हुआ || सेठ सुदर्शन वैठे उस पर शोभा अभिनव पाते हैं । श्रीमुख शशि पर अटल शान्ति है, मन्द मन्द मुस्काते हैं ।"
और इस दृश्य के साथ सुर वालाओं द्वारा सेठ पर पुष्प वर्षा होती है | कितना मनोरम दृश्य होगा वह, और अमर-काव्य में उसका चित्रांकन इतना अद्भुत वन पड़ा है- मांनो कवि श्री जी किसी रूप में उस समय स्वयं वहाँ उपस्थित रहे हों ।
यह सारा काण्ड रानी के कारण हुआ था, यह सर्व विदित हो ही चुका था । इस पर सेठ नृप से रानी के लिए क्षमादान माँग रहे हैं"अभय दान देकर रानी का मरण त्रास हरना होगा ।" कवि ने उक्त स्थान पर प्राणदण्ड का निषेध बताकर क्षमा से उसकी कितनी अनुपम तुलना की है, यह द्रष्टव्य है
" बोले श्रेष्ठी, प्राणदण्ड से क्षमा कहीं श्रेयस्कर है, राजन् ! प्राणदण्ड का देना अति ही घोर भयंकर है ।" और उस समय का वर्णन, जवकि राजा हैं, तो कवि के शब्दों में खुद लेखनी भी लिखने में और अन्त में "मुनि सुदर्शन" हो जाते हैं कवि ने किया है
"काल चक्र तेरी भी जग में, क्या ही अद्भुत महिमा है ।
पार न पा सकता है कोई, कैसी गहन प्रक्रिया है ||" संक्षेप में 'धर्मवीर सुदर्शन' कवि श्री जी के काव्य की एक 'अमर कृति' है ।
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रानी के पास पहुँचते असमर्थ रही है ।
। काल-चक्र का वर्णन