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________________ 1 अर्थ — जे कोई निकट भव्यराशिके जीव है, ते मिथ्यात्व बुद्धिकं भेदि करि स्वस्वरूप ( ज्ञान स्वभाव ) में परिणमें है । जिन्हके ज्ञानरूपी दृष्टीमें राग द्वेष अर मोह ये होय नहि, अर आत्म| स्वरूप आवलोकनतें तीनोंकूं जीति लिया है । अर पंधरा प्रमाद तजि अपने देहकूं शुद्ध कर मन वचन अर देहके योगकूं रोके है, तथा शुद्धोपयोग ( दर्शन अर ज्ञान उपयोग ) में मिलि गये है । तेई सम्यक्ज्ञानी कर्मबंधके मार्गकूं नाश कर पर वस्तुके संगकूं छांडे है, अर आत्मस्वरूपमें मन होयके आत्मरूप होय है ऐसे सम्यग्ज्ञानीका विलास है ॥ ११ ॥ ॥ अव ज्ञाताके क्षयोपशम भावते तथा उपशम भावते चंचलपणा है सो कहे है ॥ ३१ ॥ साजेते जीव पंडित क्षयोपशमी उपशमी, इनकी अवस्था ज्यों लुहारकी संडासी है ॥ खिण आगिमांहि खिण पाणिमांहि तैसे येउ, खिणमें मिथ्यात खिण ज्ञानकला भासी है ॥ जोलों ज्ञान रहे तो सिथल चरण मोह, जैसे कीले नागकी शकति गति नासी है ॥ आवत मिथ्यात तव नानारूप बंध करे, जेउ कीले नागकी शकति परगासी है ॥ १२ ॥ अर्थ - क्षयोपशम भावते अर उपशम भावते, ज्ञानी जीवकी अवस्था लुहारकी सांडसी समान् होय है । जैसे लुहारकी सांडसी लोहकूं ग्रहण करि गरम करवा क्षणमें अग्निमें प्रवर्ते है अर लोहकूं ठंडो करवा क्षणमें पाणीमें प्रवर्ते है, तैसे ये क्षयोपशमी अर उपशमी जीवकूं क्षणमें मिथ्यात्व भाव प्रगट होय अर क्षणमें ज्ञानकला प्रकाशमान रहे है । जबतक ज्ञानकला प्रकाशमान रहे है तबतक | चारित्र मोह कर्मकी पचीस प्रकृति सिथल होय रहे है, जैसे मंत्रते वा वनस्पत्यादि जडीते सर्पकी
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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