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________________ समय सार. अ०५ ॥४१॥ AARREGA .. याही भांति पर परणतिको पतन करे, मोक्षको जतन करे भौजल तरतु है। ऐसे ज्ञानवंत ते निराश्रव कहावे सदा, जिन्हको सुजस सुविचक्षण करतु है ॥ ५॥ अर्थ-मन प्रत्यक्ष जाने ऐसे बुद्धिपूर्वक उपजे जे वर्तमान कालके रागादिक अशुद्ध परिणाम, तिस परिणामकी ममता छोडे (तिस परिणामकू आत्मपणा नहि माने) है । अर मन नहि जाने तथा बुद्धिसे ग्रहण करने नहि आवे ऐसे अशुद्ध परिणामकू अनागत कालमें नहि होने देवे सावधान रहे, अर अतीत कालके हुवे अशुद्ध परिणामका नाश करनेफू उद्यम करे है। इस प्रकार पर वस्तूके परिणामकू छोडे है, तिसते छूटनेका यत्न करे है ते भवसंसार समुद्रसे तरे है। ऐसे जे ज्ञानवंत * है ते सदा निराश्रवी है, तिस ज्ञानीकी प्रशंसा प्रवीण मनुष्य निरंतर करे है ॥५॥ ॥ अव गुरूने ज्ञानीकू निराश्रवी कह्या ते ऊपर शिष्य प्रश्न करे है ॥ सवैया २३ सा ॥ ज्यों जगमें विचरे मतिमंद, खछंद सदा वरते बुध तैसे ॥ - चंचल चित्त असंजम वैन, शरीर सनेह यथावत जैसे ॥ भोग संजोग परिग्रह संग्रह, मोह विलास करे जहां ऐसे ॥ पूछत शिष्य आचारजकों यह, सम्यक्वंत निराश्रव कैसे ॥६॥ अर्थ-जैसे जगतमें अज्ञानी जन स्वच्छंद ( मरजी मुजब ) वर्तन करे है तैसे ज्ञानीजन पण सदाकाल वर्तन करे है । सो-चित्तकी चंचलता, असंयम वचन, अर शरीरमें नेह, अज्ञानीके समान ज्ञानी हूं करे है। तथा भोगमें संयोग, परिग्रहका संग्रह, अर परमें मोह विलास, ( ममता भाव ) ये 5 RELA ॥४१॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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