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________________ - जब बहु भांतिका वर्ण होय जलका स्वरूप पहिचाने नहि जाय है । अर फेरि अवसर पाय पर पदार्थका || संयोग दूर होय है, तब अपना स्वभाव पाय नीचे मारगसे ढरने लग जाय है । तैसे यह चेतनहूं राग द्वेषादिक पर संगतीसे अपना स्वरूप भूले है, ताते च्यार गती चौऱ्यासी लक्ष योनि अर एकसो त साडे निन्याणवे लक्षकोटि कुल इसमें जन्म धारण करते फिरे है । अर फेर कोई अवसरसे अपना स्वस्वभाव पाय आत्मानुभवके मार्गमें लागे है, तब कर्मबंधका क्षय करिके (अपने आत्माकू बंधते । छुडाय) मोक्षको जाय है ऐसा अनुभवका सामर्थ्य है ॥ ३०॥ . ॥ अव मिथ्यादृष्टी अनुभव शिवाय कर्मको कर्ता होय सो कहे है ॥ दोहा ॥निशि दिन मिथ्याभाव बहु, धरे मिथ्याती जीव । ताते भावित कर्मको, कर्ता कह्यो सदीव ॥ अर्थ-रात्र अर दिन पर• अपना मानिके अपने भूलते मिथ्यात्वी जीव है सो- ते फलाणा मैं 5 कीया ते फलाणा मैं लीया इत्यादि बहुत प्रकारे, रागादिक भावकर्म निरंतर करे है। ताते ऐसी अशुद्ध 18| चेतना है सो भावित कर्म है, तिसका कर्ता सदा मिथ्यात्वी जीव है ॥ ३१ ॥ FI ॥ अव मूढ मिथ्यात्वी है सो कर्मको कर्ता है अर ज्ञानी अकर्ता है सो कहे है ॥ चौपाई ॥ करे करम सोई करतारा । जो जाने सो जानन हारा ॥ जो करता नहि जाने सोई । जाने सो करता नहि होई ॥ ३२ ॥ अर्थ-मूढ अर ज्ञानी दोनूंहूं कर्म करे है ते एक सारखा देखाय है तथापि मूढ जीवकू कर्मका कर्ता कह्यो अर ज्ञानी जीवकुं कर्मका अकर्ता कह्यो तिसका कारण कहे है जो कर्मळू करे है ताकं -
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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