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________________ समय ॥१५९॥ हविधि ज्ञान प्रगट भयो, नगर आगरे माहि । देस देसमें विस्तरे, मृषा देशमें नाहि ॥ ३० ॥ जहां तहां जिनवाणी फैली । लखे न सो जाकी मति मैली ॥ ३४ ॥ जाके सहज बोध उतपाता । सो ततकाल लखे यह वाता ॥ ३१ ॥ घटघट अंतर जिन वसे, घटघट अंतर जैन । मत मदिराके पानसो, मतमाला समुझे न ||३२|| बहुत बढाइ कहांलों कीजे । कारिज रूप वात कहिलीजे ॥ नगर आगरे मांहि विख्याता । वनारसी नामे लघु ज्ञाता ॥ ३३ ॥ तामें कवित कला चतुराई । कृपा करे ये पांचौं भाई ॥ ये प्रपंच रहित हिय खोले । ते वनारसीसों हसि वोले ॥ नाटक समैसार हित जीका । सुगम रूप राजमल टीका ॥ कवित बद्ध रचना जो होई । भाखा ग्रंथ पढै सब कोई ॥ ३५ ॥ तब वनारसी मनमें आनी । कीजे तो प्रगटे जिनवानी ॥ पंच पुरुषकी आज्ञा लीनी । कवित बंधकी रचना कीनी ॥ सोर से तिरौणवे वीते । आसु मास सित पक्ष वितीते ॥ तेरसी रविवार प्रवीणा । ता दिन ग्रंथ समापत कीना ॥ ३७ ॥ ३६ ॥ सुख निधान शक बंधनर, साहिव साह किराण । सहस साहि सिर मुकुट मणि, साह जहां सुलतान । जाके राजसु चैनसों, कीनों आगम सार । इति भीति व्यापे नही, यह उनको उपकार ||३९|| समयसार आतम दरख, नाटक भाव अनंत । सोह्रै आगम नाममें, परमारथ विरतंत ॥ ४० ॥ सार ॥१५९॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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