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________________ A समय॥८॥ OROSCkA% RCHIRECRUGRA%E%ESECRECRECRACK जो निश्चय स्वरूपते सदा निर्मल है, तथा आदि मध्य अर अंत इन ती अवस्थामें एकरूप है । ऐसा है जो चिद्प (आत्मा) है, सो जगतमें जयवंत प्रवर्तों ऐसे बनारसीदास आत्मगुणरूप स्तुति करे है ॥२॥ .. ॥ अव जीव कर्मका अकर्ता तथा अभोक्ता है सो कहे है ॥ चौपई ॥जीव करम करता नहि ऐसे । रस भोक्ता खभाव नहि तैसे ॥ मिथ्या मतिसों करता होई । गये अज्ञान अकरता सोई ॥३॥ अर्थ-जीवका स्वभाव कर्मका कर्त्ता नही है अर कर्मके फलका भोक्ताहूं नही है । अज्ञानर पणासे कर्मका कर्त्ता माने है अर जब अज्ञान जाय है तब जीव कर्मका कर्ता नहि दीखे ॥ ३ ॥ ॥ अव जीव कर्मका अकर्ता है तथा कर्ता है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥निहचै निहारत स्वभाव जांहि आतमाको, आतमीक धरम परम परकामना ॥ अतीत अनागत वरतमान काल जाको, केवल खरूप गुण लोकाऽलोक भासना॥ सोई जीव संसार अवस्था मांहि करमको, करतासों दीसे लिये भरम उपासना॥ यहै महा मोहको पसार यहै मिथ्याचार, यहै भो विकार यह व्यवहार वासना ॥४॥ हूँ अर्थ-निश्चय स्वरूपसे देखिये तो आत्माका स्वभाव कैवल्य ज्ञानगुण करि सदा प्रकाशमान है है । तिस कैवल्य ज्ञानगुणमें अतीत अनागत अर वर्तमानकाल तथा लोक अर अलोक प्रत्यक्ष * * भासे है ताते कर्मका अकर्ता है । अर सोही आत्मा संसार अवस्थामें कर्मका कर्ता दीखे है सो अज्ञानका भ्रम है । यही अज्ञानका भ्रम है सो मोहका फैलाव अर मिथ्याचार तथा भवभ्रमणका विकार करावे है सोही व्यवहार वासना ( आत्माका अशुद्ध स्वभाव ) है ॥ ४ ॥ EMAMACROSAGARMAC% ॥८९॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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