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________________ ॥ अथ श्रीसमयसार नाटकको नवमोमोक्षद्वारपारंभ ॥९॥ ॥ अव आदिमें ज्ञानरूप विश्वनाथ• नमस्कार करे है । सवैया ३१ सा॥भेदज्ञान आरासों दुफारा करे ज्ञानी जीव, आतम करम धारा भिन्न भिन्न चरचे ॥ अनुभौ अभ्यास लहे परम धरम गहे, करम भरमको खजानो खोलि खरचे ॥ योंहि मोक्ष मुख धावे केवल निकट आवे, पूरण समाधि लहे परमकों परचे ॥ भयो निरदोर याहि करनो न कछु और, ऐसो विश्वनाथ ताहि बनारसि अरचे॥१॥ अर्थ-ज्ञानी है सो भेदज्ञानरूप करोतसे आत्माकी अर कर्मकी दोय फाड करे है, अर दोन फाडाकू जुदा जुदा जाने है। आत्मीक धारा (फाड) के अनुभवका अभ्यास कर शुद्ध समाधि ग्रहण करे, अर कर्म धाराका खजीना (सत्ता) खोलि निर्जरा करे है। ऐसे विधि कर मोक्षके सन्मुख धावे है ताते केवलज्ञान निकट आवे है, अर परिपूर्ण आत्म स्वरूपका परिचय होय पूर्ण निराकुलताकू पावे है ।। सो भव भ्रमणके दोरकू छोडि निरदोर होय है कछु करना बाकी न रहे है, ऐसो जो ज्ञानरूप विश्वनाथ है तिसकू बनारसीदास वंदे है पूजे है ॥ १॥ ॥ अव सुबुद्धीसे आत्म स्वरूप सधाय है सो मोक्ष अधिकार कहे है ॥ सवैया ३१ सा - धरम धरम सावधान है परम पैनि, ऐसि बुद्धि छैनी घटमांहि डार दीनी है। पैठी नो करम भेदि दरव करम छेदि, स्वभाव विभावताकी संधिशोधि लीनी है। तहां मध्यपाती होय लखी तिन धारा दोय, एक मुधामई एक सुधारस भीनी है। मुधासों विरचि सुधा सिंधुमें मगन होय, येति सबक्रिया एक समैबीचि कीनी है ॥२॥ -
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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