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________________ -393 130केइ कहें असमानके ऊपरि, केइ कहे प्रभु हेट जीके ॥ मेरो धनी नहि दूरदिशान्तर मोहिमें है मोहि सूझत नीके ॥ ४७॥ Bा अर्थ-कोई प्रभू (आत्मा) जाननेके कारण उदासीन होय बैठ रहे है, अर कोई केइ दूर। || क्षेत्रविषे यात्रा करनेळू उठि जाय है । कोई परमेश्वरके घडी मूर्तिकुं प्रणाम करे है, अर कोई छीके बैठीके पहाड चढे है। कोई कहे अस्मानके ऊपर परमेश्वर है अर कोई कहे जमीनके नीचे परमेश्वर है। Mail ऐसे अनेक लोकके अनेक मत है ] पण ज्ञानी ऐसा विचार करे की मेरा धनी (परमेश्वर ) तो कोई दूर देशांतरमें नही है, मेरे मांही है सो मुझळू आच्छी रीतीसे सूझे ( अनुभवमें आवे ) है ॥ १७ ॥ कहे सुगुरु जो समकिती, परम उदासी होइ । सुथिरचित्त अनुभौ करे, प्रभुपद परसे सोइ॥४॥ अर्थ-सद्गुरु कहे है की जो समकिती है, सो संसारते परम उदासीन होय है । अर मन स्थिर करके आत्माका अनुभव करे है, तब प्रभुपदका (आत्मस्वरूपका ) अवलोकन होय है ॥४८॥ ॥ अव मनका चंचलपणा वतावे है ॥ सवैया ३१ सा ॥छिनमें प्रवीण छिनहीमें मायासों मलीन, छिनकमें दीन छिनमांहि जैसो शक है । लिये दोर धूप छिन छिनमें अनंतरूप, कोलाहल ठानत मथानकोसो तक्र.है ।। नट कोसो थार कीघों हार है रहाटकोसो, नदीकोसोभोरकि कुंभार कोसो चक्र है। MPIL. ऐसो मन भ्रामकसु थिर आज कैसे होइ, औरहीको चंचल अनादिहीको वक्र है ।।४९॥ .5 अर्थ-ये मन है सो क्षणमें गर्वसे प्रवीण होय है अर क्षणमें मायासे मलीन बने है, क्षणमें ६ विषयका वांछक होय दीन दशा धरे है, अर क्षणमें इंद्रसमान बनजात है । क्षणमें दौडादौड करे है। -
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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