SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय A% ॥७३॥ सार. अ०८ SOLARSORGES%*%AESEARENGAS जगतमें डोले जगवासी -नररूप धरि, प्रेत कैसे, दीप कांधो रेत कैसे धूहे है ॥, दीसे पट भूषण आडंबरसों नीके फीरे, फीके. छिन मांहि सांझ अंवर ज्यों सूहे है ॥ मोहके अनल दगे मायाकी मनीसों पगे, डाभकि अणीसों लगे ऊस कैसे फूहे है ॥ . धरमकी बूझि नांहि उरझे भरम मांहि, नाचि नाचि मरिजाहि मरी कैसे चूहे है ॥४२॥ __ अर्थ-संसारी जीव है ते जगतमें मनुष्यका रूप धरि डोले है, पण ते प्रेतके दीपक समान 5 जलदी बुझ जाय है अथवा रेतके धूवे समान इहांसे उडी उहां पैदा हो जाय है। मनुष्य देह वस्त्रा भरणते शोभनीक दीखे है, परंतु क्षणमें सांझके आकाश समान फीके पडे है। सदा मोहरूप अग्नीसे | दाहे है अर मायामें व्यापि रहे है, पण घास ऊपरके पाणीके बूंद समान क्षणमें विनाश हो जाय है। संसारी जीवळू धर्मकी ओळखही नही अर विपयते भूलि मोहमें नाचि नाचि मरजाय है, जैसे मरी रोग ( प्लेग ) के उंदीर नाचि नाचि मरे है तैसे ॥ ४२ ॥ ॥अव जगवासी जीवके मोहका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥___ 'जासूं तूं कहत यह संपदा हमारी सो तो, साधुनि ये डारी ऐसे जैसे नाक सिनकी ॥ तासूं तूं कहत हम पुन्य जोग पाइ सो तो, नरककि साई है वढाई डेढ दिनकी ॥ घेरा मांहि पन्योतूं विचारे सुख आखिनिको, माखिनके चूटत मिठाई जैसे भिनकी॥ एतेपरि होई न उदासी जगवासी जीव, जगमें असाता है न साता एक छिनकी ॥४३॥ अर्थ-अरे संसारी प्राणी ? जिस संपदाकू तूं आपनी कहे है, सो तिस संपदाकू साधू लोकने नाकके मैल जैसी दूर फेक दीई है तिसकू फेर नहि लेवे।अर ताकुंतूं कहे हम पुन्य जोगसे पाई है परंतु ARA NE ॥७३ ॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy