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________________ यो परतक्ष परोक्ष स्वरूपसो, साधक साध्य अवस्था दोई ॥ दुहुको एक ज्ञान संचय करि, सेवे सिव वंछक थिर होई ॥ १६ ॥ अर्थ - विज्ञानघन ( आत्मा ) है ते द्रव्य है अर ज्ञान है ते पर्याय है, ऐसो विज्ञानघन अर ज्ञान एकही है तातै द्रव्य अर पर्यायको अभेदपणो बतावे है - जहां सकल कर्मका क्षय होनेसे ध्रुवधर्म ( गुण ) है लक्षण जाका ऐसा सिद्धका स्वभाव है ताको साध्यपद कहिये है । ( सिद्ध स्वभावका अनंत कालमेंही नाश नही है तातै ध्रुव कहिये है सो साध्यपढ़ है ) अर जिन्हके मन वचन कायके योग | शुद्धोपयोगरूप परणये है तिनको ( तीर्थंकर, साधु वा सम्यक्तीको ) साधकपद कहिये है सो सिद्धपदका | साधनेवाला है । साधक है सो परोक्ष स्वरूप है अर साध्य है सो प्रत्यक्ष स्वरूप है ऐसे साधक अर साध्य दोय अवस्था है। ज्ञान संचयकरि दोऊको एक स्वभाव जानि जो ग्रहण करे है, सो निर्वाणका वांछक पुरुष, साध्य अर साधक दोउ पदस्थमें एक विज्ञानघन है ऐसे चिंतवन करि स्थिर होय है ॥ १६ ॥ ॥ अव द्रव्य गुण पर्याय भेद कथन | कवित्त ॥ - दरसन ग्यान चरण त्रिगुणातम, समलरूप कहिये विवहार ॥ निचै दृष्टि एक रस चेतन, भेद रहित अविचल अविकार ॥ सम्यक्दशा प्रमाण उभयनय, निर्मल समल एकही वार ॥ समकाल जीवकी परणती, कहे जिनेंद गहे गणधार ॥ १७ ॥ अर्थ — दर्शन, ज्ञान, अर चारित्र, ये तीनगुण आत्माके है, ऐसा तीनरूप कहना सो मलरूप व्यवहार नय है । अर निश्चयते एक चेतन गुण युक्त है, भेद रहित है अर शुद्ध निर्विकार है । ये
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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