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________________ SISUSTUSSEISURORILISHIGA SUUR*%**% अर्थ-जहां आत्मामें ज्ञानकलाका प्रकाश है, तहां धर्मरूप धरतीमें सत्यरूप सूर्यका तेज है । अर जहां शुभ तथा अशुभ कर्ममें आत्मा घुलाइ रहा है, तहां मोहका विलासरूप घोर अंधेरका कूप है। ऐसे आत्माकी चेतना दोनूं तरफ गुपचुप हो रही है सो, शरीररूप मेघमें बीजली माफक फैलि फिर रहे है। ये चेतना बुद्धीसे ग्रही न जाय अर वचनसे कही न जाय, जैसे पानीकी तरंग पानी में गुप्प होय है ॥२॥ ॥अब कर्मबंधका कारण रागादिक अशुद्ध उपयोग है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥कर्मजाल वर्गणासों जगमें न बंधे जीव, बंधे न कदापि मन वच काय जोगसों ॥ चेतन अचेतनकी हिंसासों न बंधे जीव, बंधे न अलख पंच विषै विष रोगसों ॥ कर्मसों अबंध सिद्ध जोगसों अबंध जिन, हिंसासोअबंध साधु ज्ञाता विष भोगसों। इत्यादिक वस्तुके मिलापसों न बंधे जीव, बंधे एक रागादि अशुद्ध उपयोगसों ॥३॥ अर्थ-जगतमें कर्मजाल पुद्गलकी वर्गणा अनंतानंत भरी है परंतु जीवक बंध होनेका कारण कर्मवर्गणासें भय जगत नहीं है, तथा मन वचन अर कायके योगसे कदापि कर्मबंध नहि होय है। चेतन वा अचेतनके हिंसाते कर्मबंध नहि होय है, अर पंच इंद्रीयोंके विषय सेवन करनेसे अलख । (आत्मा) कू कर्मबंध नहि होय है। जो कर्मवर्गणाका भय जगत बंध, कारण होतातो सिद्धभगवान् जगतमें है अर तिनकू बंध नही है तथा मन वचन अर कायके योग बंधळू कारण होतेतो जिनभगवान्कू योग है अर तिनकू बंध नही है, अर हिंसाही बंधळू कारण होतीतो साधूसे अकारित हिंसा होय है । अर तिनंकू बंध नहीं है तथा इंद्रीयके विषयं बंधळू कारण होतेतो ज्ञाता विषय भोगवै| KARAAAAAAA -
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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