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________________ I अतीत अनागत वरतमान मोहरस, भीग्यो चिदानंद लखे बंधमें विलास तो॥ बंधको विदारि महा मोहको खभाव डारि, आतमको ध्यानकरे देखे परगास तो॥ करम कलंक पंक रहित प्रगटरूप, अचल अवाधित विलोके देव सासतो॥ १३ ॥ अर्थ-सम्यक्तीकी क्रीडा कहे है-कोऊ बुद्धिवंत सम्यदृष्टी होय सो शरीररूप घरको देखे अर भेदज्ञान दृष्टीसे ( जड अर चेतन भिन्न जानना सो भेदज्ञान है) वस्तु स्वभावको विचार करे । तदि अतीत, अनागत, वर्तमान, इस तीन कालमें मोह रसते भीज्या अर कर्मबंधमें विलास करतो चिदानंद जो है सो मैं हूं ऐसा प्रथम निश्चय करे। नंतर स्व पदस्थके अनुसार आचरणकरके बंधको विदारतो जाय, महा मोहको छोडतो जाय, अर आपने आत्माको ध्यानकरि अनुभवरूप प्रकाशमें अवलोकन करे। तब कर्मकलंक रहित, प्रत्यक्ष, अचल, बाधा रहित, शाश्वत आत्मारूप देव मैं हूं ऐसा देखे है ॥ १३ ॥ ॥ अव गुणगुणी अभेद कथन । सवैया २३ सा ।।शुद्ध नयातम आतमकी, अनुभूति विज्ञान विभूति है सोई॥ वस्तु विचारत एक पदारथ, नामके भेद कहावत दोई॥ यो सरवंग सदा लखि आपुहि, आतम ध्यान करे जब कोई॥ मेटि अशुद्ध विभावदशा तब, सिद्ध स्वरूपकी प्रापति होई ॥ १४ ॥ अर्थ-शुद्ध नयसे आत्माका अनुभव करना सोही ज्ञानकी संपदा है । वस्तुअपेक्षासे विचारिये तो आत्मा अर अनुभवज्ञान भिन्न भिन्न नहीं है एक वस्तु है, । आत्मा गुणी है अर ज्ञान गुण है, ऐसे गुण अर गुणी नामके भेदकरि दोय कहावे है। परंतु सर्वप्रकारे आपहीकू गुण अर गुणी जानकरि *** RESEOSESZKARREKO ---1ऊऊर - R ERRES
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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