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________________ समय ॥५४ SSCRIGARRESPECTARAKSHASKAR ६ करना सो सामान्य परिग्रह त्याग कह्या है । अब स्व स्वरूपका अर पर स्वरूपका भ्रम दूर करनेके टू हूँ अर्थि, सद्गुरु उपदेश करनेको उमगी रह्या है । सो परिग्रह तथा परिग्रहके विशेष अंग कहे है अर है * शिष्य सचेत होके सुननेको लहलह्यो है ॥ २९॥ । त्याग जोग परवस्तुसब, यह सामान्य विचार। विविध वस्तुनाना विरति, यह विशेष विस्तार ३० ॐ अर्थ-जितनी पर वस्तु है तितनी समस्त त्यागने योग्य है यह सामान्य परिग्रह त्यागका विचार , , है । अर अनेक प्रकारकी वस्तु है तिसकू नाना प्रकार करि विरति (त्याग) करना यह विशेष विस्तार-4 ६ रूप परिग्रह त्यागका विचार है ॥ ३०॥ ॥अब परिग्रह होताई ज्ञाताकी परिग्रह ऊपर अलिप्तता रहे सो कहे है ॥ चौपई ॥__पूरव करम उदै रस भुंजे । ज्ञान मगन ममता न प्रयुंजे ॥ मनमें उदासीनता लहिये । यों बुध परिग्रहवंत न कहिये ॥ ३१॥ अर्थ-जो ज्ञानमें तत्पर है सो पूर्वे बांध्या कर्मके उदय माफिक जैसा शुभ अथवा अशुभ कर्मका रस उपजे तैसा भोगवे है, पण तिस भोगमें तल्लिन होके प्रीति करे नही । तथा परिग्रहादिक भोगके र ६ संयोगमें अर वियोगमें हर्ष विषाद करे नही अर मनमें उदासीनतासे रहे है, ऐसे ज्ञानीकू परिग्रहवंत हूँ हूँ नही कहिये ॥ ३१ ॥ ॥ अव ज्ञानीका अवांछक गुण दिखावे है ॥ सवैया ३१ सा ॥- . जे जे मन वंछित विलास भोग जगतमें, ते ते विनासीक सब राखे न रहत है ॥ और जे जे भोग अभिलाष चित्त परिणाम, ते ते विनासीक धाररूप व्है वहत है ।। RECORRIORAGARIKAAMROMORRORESOREGA ॥५४॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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