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________________ समय ॥ ३५ ॥ ॥ अथ श्रीसमयसार नाटकको पुन्यपाप एकत्व करण चतुर्थद्वार प्रारंभ ॥ ४ ॥ कर्त्ता क्रियाकर्मको प्रगट वखान्यो मूल । अब वरनौं अधिकार यह, पापपुन्य समतूल ॥१॥ अर्थ - कर्त्ता किया अर कर्म इनिके मूल रहस्य ) का व्याख्यान प्रगट कीयो । अब पाप अर पुण्य ये दोऊ समान् है तिसका अधिकार वर्णन करूं हूं ॥ १ ॥ ॥ अव पापपुण्य द्वारविर्षे प्रथम ज्ञानरूप चंद्रके कलाकूं नमस्कार करे है | कवित्त ॥ - जाके उदै होत घट अंतर, विनसे मोह महा तम रोक ॥ शुभ र अशुभ करमकी दुविधा, मिटे सहज दीसे इक थोक ॥ जाकी कला होत संपूरण, प्रति भासे सब लोक अलोक ॥ सो प्रतिबोध शशि निरखि, बनारसि सीस नमाइ देत पग धोक ॥ २ ॥ अर्थ - जिस ज्ञानरूप चंद्रमाका उदय होते हृदयमें जो मोहरूप महा अंधकार है, तिस अंधकारका नाश होय है । इस अंधकारका नाश होनेसे शुभकर्म भला है अर अशुभकर्म भला नही. ऐसी जो द्विधा है सो सहज मिट जाय है, अर ये शुभ अशुभकर्म आत्माकूं कर्मबंध करनेवाले है ऐसे एकरूप दीखे है । अर इस ज्ञानरूप चंद्रमाकी कला जब संपूर्ण प्रगट होय है, तब समस्त लोकालोक प्रगट दी है। ऐसो प्रबोध केवलज्ञानरूप चंद्रमाकूं अवलोकन करि, बनारसीदास मस्तक नमाइके तिनके चरणकूं प्रणाम करे है ॥ २ ॥ 1 सार अ० ४ ॥३५॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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