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________________ समय॥१४८॥ सारअ० १३ MARRIALISAUGAESAGROGRESUGARECRUGGER ॥ अव वंधका मूल आश्रव है अर मोक्षका मूल संवर है सो कहै है ॥ दोहा॥चौदह गुणस्थानक दशा, जगवासी जिय भूल। आश्रव संवर भाव दै, बंध मोक्षको मूल ॥११०॥ अर्थ जगतवासी जीव अशुद्धता ( अज्ञानता ) से भूलमें पड्यो है तिसकी ए चौदह गुणस्था8 नकी चौदह दशा होय है, यहां तत्व दृष्टीसे देखेतो आश्रव है सो बंधका मूल है अर संवर है सो मोक्षका मूल है ॥ ११०॥ ॥ अव आश्रवकी अर संवरकी जुदी जुदी व्यवस्था कहे है ॥ चौपई ॥आश्रव संवर परणति जोलों । जगवासी चेतन तोलों॥ आश्रव संवर विधि व्यवहारा । दोउ भवपथ शिवपथ धारा ॥ १११ ॥ आश्रवरूप बंध उतपाता। संवर ज्ञान मोक्ष पद दाता॥ जा संवरसों आश्रव छीजे । ताकों नमस्कार अब कीजे ॥ ११२ ॥ अर्थ-जबतक आश्रवके अर संवरके परिणाम परिणमे है तबतक चेतनरूप ईश्वर जगत निवासी हैं * होय रहे है । यहां आश्रवका विधि है सो व्यवहारमें है अर संवरका विधि है सो पण व्यवहारमें है, ये दोय व्यवहार मार्ग है - आश्रव विधि है सो संसारमार्गकी धारा है अर संवरविधि है सो 8 मोक्षमार्गकी धारा है ॥ १११ ॥ संसारमें जे आश्रवरूप अज्ञान है सो कर्मबंधकों उत्पाद (उपजावे) है, अर संवररूप ज्ञान है सो मोक्षपदका दाता है । जिस संवररूप ज्ञानसे आश्रवरूप अज्ञानका हूँ क्षय होय है, तिस संवररूप ज्ञानकू अब नमस्कार करे है ॥ ११२ ॥ ॥१४८||
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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