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________________ समय॥१२१॥ अर्थ – माया ( लक्ष्मी ) अर छाया एक सरखी है, क्षणमें घटे है अर क्षणमें बढे है । जो इन संगतीकूं लगे है तिनकूं कहांभी सुख नहि ॥ ६ ॥ ॥ अव स्त्री पुत्रादिकका अर आत्माका संबंध नही सो दिखावे है ॥ सवैया २३ सा ॥ सोरठा ॥लोकनिसों कछु नांतो न तेरो न, तोसों कछु इह लोकको नांतो ॥ ये तो रहे रमि स्वारथके रस, तूं परमारथके रस मांतो ॥ . ये तनसों तनमै तनसे जड, चेतन तूं तनसों निति हांतो ॥ सुखी अपनोबल फेरि, तोरिके राग विरोधको तांतो ॥ ७ ॥ जे दुर्बुद्धी जीव, ते उत्तंग पदवी चहे । जे सम रसी सदीव, तिनकों कछु न चाहिये ॥ ८ ॥ अर्थ — हे चेतन ? स्त्री पुत्रादिकं तूं अपना जाने है सो इनसे तेरा कछु नाता नहीं अर इनकाहूं तेरेसे कछु नाता नही । ये अपने स्वार्थके कारण तेरेसाथ रमि रहे है अर तूं परमार्थ ( आत्महित ) - कूं छोडि बैठा है। ये तेरे शरीरपर मोहित है पण शरीर जड है अर तूं चेतन है सो तूं शरीरते सदा भिन्न है। ताते राग द्वेष अर मोहका संबंध तोडिके अपने आत्मानुभवकूं प्रगट कर सुखी होहुं ॥७॥ जिस जीवकी राग द्वेष अर मोहसे दुर्बुद्धी हुई है ते इंद्रादिक संसार संपदाकी उंच पदवी चहे है । अर जिन्होने राग द्वेषादिककूं छोडिके आत्मानुभव कीया है ते समरसी जीव कदापीहूं संसारसंबंधी उंच पदकी कछु इच्छाही नहि करे है ॥ ८ ॥ ॥ अव सुखका ठिकाणा एक समरस भाव है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ हांसी में विषाद से विद्यामें विवाद वसे, कायामें मरण गुरु वर्तन में हीनता ॥ सार. अ० १२ ॥१२१॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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