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________________ * * 62 ॥ अब, सत्ताके अंशमें जीव है इस बारवे नयका स्वरूप कहे है । सवैया ३१ सा ॥ को महा मूरख कहत एक पिंड मांहि, जहांलों अचित चित्त अंग लह लहे है ॥ जोगरूप भोगरूप नानाकार ज्ञेयरूप, जेते भेद करमके तेते जीव कहे है मतिमान कहे एक पिंड मांहि एक जीव, ताहीके अनंत भाव अंश फैलि रहे है | पुद्गलसों भिन्न कर्म जोगसों अखिन्न सदा, उपजे विनसे थिरतां स्वभाव गहे है ||२५|| अर्थ — कोई महा मूढ कहें - एक देहमें, जबतक चेनन अर अचेतन पदार्थ के विकल्प (तरंग) ऊठे । तबतक जोगरूप परिणमे सो जोगी जीव अर भोगरूप परिणमे सो भोगी जीव ऐसे नाना प्रकार ज्ञेयरूप जितने क्रियाके भेद होय है, तितने जीवके भेद एक देहमें उपजे है । तिनकूं मतिमान कहे एक देहमें एकही जीव है, पण तिस जीवके ज्ञान परिणामकरि अनंत भावरूप अंश फैले है । ये जीव | देहसों भिन्न है अर कर्मयोगसे रहित है, तिस जीवमें सदा अनंतभाव उपजे है अर अनंत भाव विनसे है परंतु जीव तो सदा स्थीर स्वभावही धारण करे है ॥ २५ ॥ ॥ अब जीव क्षणभंगुर है, इस तेरवे नयका स्वरूप कहे है ॥ ३१ सा ॥ - कोउ एक क्षणवादी कहे एक पिंड मांहि, एक जीव उपजत एक विऩसत है || जाही समै अंतर नवीन उतपति होय, ताही समै प्रथम पुरातन वस्त है ॥ सरवांगवादी कहे जैसे जल वस्तु एक, सोही जल विविध तरंगण लसत है || तैसे एक आतम दरख गुण पर्यायसे, अनेक भयो पैं एकरूप दरसत है ॥ २६ ॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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