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________________ ॥ अव जीव कर्मका भोक्ता तथा अभोक्ता है सो कहे है ॥ चौपई ॥यथा जीव का न कहावे । तथा भोगता नाम न पावे ॥ है भोगी मिथ्यामति मांहि । गये मिथ्यात्व भोगता नाही ॥ ५॥ अर्थ-जीव कर्मका कर्ता नहीं कहावे अर भोक्ताहू नही कहावे है । पण अज्ञानसे भोक्ता है| अर अज्ञान गयेते अभोक्ता कहावे है॥ ५ ॥ ॥ अव भोक्ताका अर अभोका लक्षण कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥जगवासी अज्ञानी त्रिकाल परजाय बुद्धि, सोतो विषै भोगनिसों भोगता कहावे है ॥ समकीति जीव जोग भोगसों उदासी ताते, सहज अभोगताजु ग्रंथनिमें गायो है ॥ यांहि भांति वस्तुकी व्यवस्था अवधारे वूध, परभाव त्यागि अपनो स्वभाव आयो है। निरविकलप निरुपाधि आतम आराधि, साधिजोग जुगति समाधिमें समायो है ॥६॥ अर्थ-जगतमें रहतेवाले जे अज्ञानी जीव है ते सदा देहभोगादिकमें ममत्व करे है, ताते अज्ञानी जीव विषय भोगके भोक्ता कहावे है । अर भेदज्ञानी सम्यक्ती जीव है ते मन वचन कायसे | देह भोगते उदासीन रहे है, ताते भेदज्ञानी जीव विषयभोगळू भोगतेहूं अभोक्ता है ऐसे शास्त्रमें कह्या है । ज्ञानी जीव है सो स्वपरका भेद जाने है, अर देहादिककी ममत्व छोडि आत्मस्वभावमें आवे है। ताते कर्म उपाधिरहित ऐसा जो निर्विकल्पआत्मा तिसआत्माका अनुभव करे है, अर मन वचन तथा कायके योगळू रोकिके आत्मस्वरूपमें मिले ( कर्म रहित होय मुक्त होय) है ॥ ६ ॥ ॥ अव ज्ञानीजीव कर्मका कर्ता तथा भोक्ता नही होय है ताका कारण कहे है ॥ सवैया ३१ सा॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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