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________________ | इह संपदा नरकके जानेकूं साइ ( इसार ) है अर इसकी बढाई दीड दीनकी है । इस स्त्री पुत्रादिकके घेरेमें तूं पडा है अर आखीनकूं सुख दीखे है, परंतु तूं विचार कर ? ये तेरी धन संपदा खानेकूं संग लगे है जैसे मिठाई खानेकुं मक्षिका चूटे है भिनभिनाट कर घेर राखे है । ऐसे होते हू जगवासी जीव धनसंपदादिकते उदासीन होय नही सो बडा आश्चर्य है, विचार करिये तो इस जगतमें सदा दुःखही | है सुख क्षणभरभी नही है ॥ ४३ ॥ ॥ अव संसारी जीवकूं सद्गुरू समझावे है ॥ दोहा ॥ - यह जगवासी यह जगत्, इनसों तोहिन काज । तेरे घटमें जगवसे, तामें तेरो राज ॥ ४४ ॥ अर्थ - हे भव्य ? इह जगवासी लोकसे अर जगतसे तेरा संबंध राखनेका काम नही । तेरे घट पिंडमें ज्ञान स्वभावमय समस्त प्रकाशरूप ब्रह्मांड वसे है तहां तेरा अविनाशी राज्य है ॥ ४४ ॥ || अब जे पिंड ते ब्रह्मांड ये बात साची है ऐसे सिद्धकरी बतावे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ - याहि नर पिंडमें विराजे त्रिभुवन थीति, याहिमें त्रिविधि परिणामरूप सृष्टि है ॥ याहि करमकी उपाधि दुःख दावानल, याहिमें समाधि सुखवारीदकि वृष्टि है ॥ याहि करतार करदूति यामें विभूति, यामें भोग याहिमें वियोग या वृष्टि है याहिमें विलास सर्व गर्भित गुप्तरूप; ताहिको प्रगट जाके अंतर सुदृष्टि है ॥४५॥ अर्थ — कटीके नीचे पाताल लोक अर नाभि है सो मध्य लोक अर नाभी ते ऊपर स्वर्गलोक ऐसे त्रिभुवनरूप स्थिति इस मनुष्य देहमें वसे है, अर इसहीमें कइक परिणाम उपजे है कइक नाश पावे है अर कंइक स्थिर रहे है ऐसे परिणामरूप त्रिविध सृष्टि बन रही है । इस देहपिंडमें आत्माकूं
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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