SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 572
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . 4559514504514614545454545454545454545 जाता है। श्रेष्ठ चारुदत्त का जीवन इसका ज्वलन्त प्रमाण है। वेश्या व्यक्ति प्रेमी नहीं, धन प्रेमी है। धन के बिना वे अपने प्रेमी को पाखाने में पटक देती हैं। वेश्यागामी अपने माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री के तथा पत्नी का विश्वास गवाँ देते हैं। ऐसे लोगों को धर्म, गुरुजनों के उपदेश अच्छे नहीं लगते। जिसका मन पित्त से आकुलित हो उसे मिश्री-मिश्रित दूध कैसे रुच - सकता है। वास्तव में यह व्यसन मनुष्य के नैतिक पतन की प्रथम सूचना है। इससे सर्वस्व विनाश होता है। अतः अपनी. परिवार की सुख-शांति के TH लिये इस व्यसन का परिहार आवश्यक है। शिकार व्यसन-अपने क्षणिक मनोविनोद और मनोरंजन के लिये, स्वभाव से LE भयभीत, निरपराध, आश्रयहीन, रोंगटे खड़े करके भागते, तृण-भक्षण करने वाले निरीह मौन पशुओं का अपहरण कर मारना, धोखे से, छिपकर, ऊँचे स्थान 7 पर चढकर मारना, कायरता, क्ररता और अत्याचार है। स्वयं सई की चभन - से विचलित होने वाला शिकारी वन्य पशुओं के प्रति दया भाव नहीं रखता। शिकार का परिणाम बहुत बुरा होता है। यदि राम मृग के शिकार के लिये न जाते तो सीता का अपहरण नहीं होता। शिकार के कारण वन सूने हो LF गये। राजा दशरथ को शिकार के परिणाम से ही पुत्र-वियोग जन्य दुःख सहना LE पड़ा। शिकारी साक्षात् यमराज ही होता है, उसके मन में वात्सल्य कहाँ? यह घोर पाप कर्म है। राजाओं का राज्य समाप्त होने का कारण उनकी यही पाशविक प्रवृत्ति ही है। चौर कर्म -बिना अनुमति के पर पदार्थ का ग्रहण चौर कर्म ही है। चोर व्यक्ति भयभीत, शंकित और घृणा का पात्र होता है। सीता का चोर रावण अपयश TE को प्राप्त हुआ। दूसरों की धन-सम्पदा का अपहरण बड़ा पाप कर्म है। यह - साक्षात् प्राणों का हरण ही है। चोरी की वस्तु को ग्रहण करना अनीति से उपार्जित धन है जो नाशवान है। चोर का कौन विश्वास करे। चोरी का धन धर्म में लगाना धर्म को मलीन करता है। चोर तो भिखारी से भी गया बीता होता है। परस्त्री गमन - कामान्ध व्यक्ति विवेकहीन होकर परस्त्री गमन की इच्छा से उनका संसर्ग करते हैं; जिसका परिणाम अत्यन्त दुःखदायी होता है। परस्त्री सेवन में इहलोक का दुख पुष्प है और परलोक में भीषण यातनाएं उन दुःखों का फल है। लंकापति रावण इसका प्रमाण है। परस्त्री/पर-पुरुष से प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy