SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 15454545454545454545454545454545 म (अर्हदवली के शिष्य) आचार्य धरसेन हुए जिन्हें अग्रायणी पूर्व का आंशिक 4 , ज्ञान था। उन्होंने अपने दो शिष्यों को जिनके नाम भतति थे, अपना ज्ञान प्रदान किया जिन्होंने षट्खंडागम की रचना की और वीरसेनाचार्य ने जिनकी धवला-जय धवला आदि आगम ग्रन्थों की टीकाएं की जिनका हिन्दी अनुवाद हो चुका है। इन ग्रन्थों का स्वाध्याय हो रहा है। माघनन्दि आचार्य की प्रमुखता में मूलसंघ के अंतर्गत नन्दिसंघ की स्थापना हुई-नन्दिसंघ की पट्टावली में इसके बाद की आचार्य परंपरा वि. सं. 1310 तक दि. जैनाचार्यों की चली आई और उनके अधिनायकत्व में मनि-आर्यिका-श्रावक श्राविका इस प्रकार चर्तर्विध संघ की धार्मिक परंपरा विशुद्ध रूप में चली। वि.सं.0 1375 में आचार्य प्रभाचन्द जी के सामने मुगलशासन के समय कुछ ऐसी कठिनाईयां उपस्थित हुई थी कि श्रावकों ने इन प्रभाचन्द्र आचार्य को बादशाह के निमंत्रण पर लंगोटी लगाकर जाने को बाध्य किया। वे इस आशंका से लंगोटी लगाकर गये कि जैन समाज के श्रावकों को इन अत्याचारी शासकों का कोप भाजन न बनना पड़े। आचार्य प्रभाचन्द को इससे बड़ी आत्मग्लानि हुई और उन्होंने घोषित किया कि मैं मुनि और आचार्य नहीं रहा। अब मुझे और आगे की शिष्य परंपरा को भट्टारक शब्द से ही संबोधित किया जाये। यद्यपि उस काल के बाद भी इस भट्टारक परंपरा में कुछ पट्टाधीश नग्न दिगम्बर भी हुए, परंतु कालांतर में यह परंपरा सवस्त्र हो गई, शिथिलाचार भी क्रमशः बढ़ता गया और दि. जैन मुनि परंपरा का प्रायः लोप सा हो गया। फलतः मूलआम्नाय की विशुद्ध परंपरा छिन्न-भिन्न हो गई। दक्षिण प्रान्त में कहीं-कहीं नग्न दि. मुनि पाये जाते थे। कालांतर में राजस्थान के छाणी ग्राम के श्रावक क्रमशः क्षुल्लक दीक्षा के बाद 2985 में मुनि पद पर आसीन हुए। इन्हीं के समय में श्री 108 मुनि सूर्यसागर जी इनके पास दीक्षित हुए उसी समय मुगांवली (म.प्र.) में इन दोनों का शुभागमन हुआ। जहां तक मुझे स्मरण है एक मुनिराज और भी संघ में थे जिनका नाम याद नहीं आता। ये तीनों साध शद्धाम्नायी थे अपने LE आचार में दृढ़ थे किसी प्रकार का परिग्रह उनके साथ में नहीं था। वे मुंगावली किसी मंदिर या धर्मशाला में नहीं ठहरे किन्तु नगर के बाहर आम्रवन में ठहरे थे। मैंने तीन दिन उनके प्रवचन सने थे जिनको सनकर बहत प्रसन्नता हई।+ पश्चात उसी वर्ष आचार्य श्री शांतिसागर जी (दक्षिण) का कटनी में चौमासा हुआ। इसके बाद मुझे आचार्य शांतिसागर जी छांणी के दर्शन करने का अवसर नहीं आया। अज्ञात =1512 प्रशमभूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 1515-F नानासानायटाटाETELE - . - . - . III.
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy