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________________ ELEEEEEEानानानानानानाना FFIFIEII-IIFIFIFIFIFIFIFIFI 4 येन-केन-प्रकारेण उनकी पूर्ति में वह व्यग्र बना रहता है। इच्छा का स्वभाव है कि एक की पूर्ति होते ही दूसरी इच्छा तुरन्त जन्म ले लेती है। उत्पत्ति । और पूर्ति का यह दुश्चक्र निरन्तर चलता रहता है। इच्छा-पूर्ति में जो सुख 4 दिखाई देता है. वह वस्तुतः सुख नहीं, सुखाभास होता है। यह सुख - इन्द्रियाश्रित होता है जो धीरे-धीरे नीरसता में दुःख में बदल जाता है। दुःख - रहित सुःख की प्राप्ति इच्छा-पूर्ति में नहीं, इच्छा के अभाव में है। निष्काम LE होने में है। अतः परिग्रह परिमाण व्रतधारी को यह प्रयत्न करन वह अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करे, अपनी जीवन-पद्धति को सादा और सरल बनाये, विषय-कषायवर्द्धक पदार्थों और परिस्थितियों से बचे, इच्छाओं को मर्यादित करते हुए धन-धान्य, स्वर्ण-रजत, चल-अचल, सम्पत्ति, पशुधन, जड़धन आदि की मर्यादा बांधे और प्राप्त सम्पत्ति का दूसरों के हित 51 में, जन-कल्याणकारी प्रवृत्तियों में उपयोग करने का लक्ष्य रखे। अर्जन का विसर्जन करे और अपने अर्जन के साधनों को शुद्ध और प्रामाणिक बनाये रखे। ऐसे व्यवसाय न करे, जिससे निरपराध जीवों की हिंसा होती हो। 51 यथा-जंगल में आग लगाना, वृक्षों को काटना, तालाबों को सुखाना, नशीले पदार्थों को बेचना, शराब का ठेका लेना, असामाजिक तत्वों को प्रश्रय देना आदि। इस व्रत के धारण से समाज में बढ़ती हुई शोषण, अपहरण, तस्कर आदि प्रवृत्तियाँ रुकती हैं और स्वावलम्बन, श्रम, आत्म-निर्भरता को प्रश्रय - मिलता है। व्यक्ति जिन व्रतों को धारण करे. उनकी पर्ण सजगता और ईमानदारी के साथ रक्षा भी करे। आज जो व्रत धारण किये जाते हैं, उनकी दिशा उल्टी है। आतंकवाद और उग्रवाद के नाम पर, संकीर्ण प्रान्तीयता और राष्ट्रीयता के नाम पर, साम्प्रदायिकता के नाम पर, दलबन्दी के नाम पर, धार्मिक कट्टरता के नाम पर भी लोग प्रतिज्ञा लेते हैं। पर उस प्रतिज्ञा में जीवन-रूपान्तरण का लक्ष्य नहीं होता। वहाँ लक्ष्य होता है-स्वार्थसिद्धि, अनैतिक तरीकों से धन प्राप्त करना, दूसरों को डराना, धमकाना, आतंकित और भयभीत करना। अणुव्रत और महाव्रत धारण करने वाला व्यक्ति भोग के लिये नहीं त्याग के लिए, परिग्रह बढ़ाने के लिये नहीं इन्द्रिय-संयम के लिए. इन्हें धारण करता है और इसीलिए इन व्रतों के सम्यक रूपेण परिपालन के लिए वह सजग 4 और सावधान रहता है। व्रत धारण करते समय वह किसी दबाव में नहीं आता। 454545454545454545454545 154545454545454545454545454545454545454545 494 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 5445454545454757545555555
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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