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________________ I I - 45 तक सीमित रहता है। पूर्व की भांति हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील जैसी दुष्प्रवृत्तियां 45 भले ही स्थूल रूप में कम दिखाई देती हों पर ये सूक्ष्म बनकर अशुभ विचारों के रूप में संपूर्ण मानवता को, उसके सांस्कृतिक परिवेश को प्रदूषित किये 15 हुए हैं। बाहरी तौर पर लगता है कि सामूहिक नैतिकता का ग्राफ काफी 4 ऊंचा चढ़ गया है, क्योंकि सभा-स्थलों से, समाज-संगठनों से, राजनैतिक अधिवेशनों से, अन्तर्राष्ट्रीय मंचों से सहयोग, सदभाव, एकता, विश्व-शांति आदि की बातें की जाती हैं, उनसे संबंधित प्रस्ताव पारित किये जाते हैं, रासायनिक हथियारों को कम करने तथा प्रतिबन्धित करने के निर्णय लिये जाते हैं; पर वैयक्तिक स्तर पर व्यक्ति के जीवन में कथनी और करनी का अन्तर बढ़ा है। वह पहले की अपेक्षा अधिक स्वार्थकेन्द्रित, संकीर्ण और संदेहशील बना है पूर्वापेक्षा वह अधिक बेचैन, उग्र, व्यग्र और अशान्त है। शास्त्रों में कहा गया है कि मानव जीवन अत्यन्त दुर्लभ है पर आज मानव संख्या अनियंत्रित है। बढ़ती हुई जनसंख्या के विस्फोट से बड़े-बड़े अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री चिन्तित हैं। मनुष्य आकृति से मानव भले ही हो पर प्रकृति से वह मानव नहीं लगता। मानव के साथ पशुता का अंश जुड़ा हुआ है। यह पशुता ही उसे मानवता का बोध नहीं करने देती। पशुता को वैज्ञानिक यंत्रों से, तकनीकी प्रगति से नहीं काटा जा सकता। सुखसुविधाएं बढ़ाकर, धन-सम्पत्ति का संग्रह कर, मानव की आकृति को सजाया-संवारा जा सकता है पर उसकी प्रकृति में आन्तरिक रूपान्तरण नहीं लाया जा सकता। मनुष्य और पशु में मूल अन्तर बुद्धि और विवेक का है। इन्द्रियों के विषय-सेवन के क्षेत्रों में विज्ञान के द्वारा वृद्धि की जा सकती है, इन्द्रियों की शक्ति को वैज्ञानिक उपकरणों से बढ़ाया जा सकता है, शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श के नये-नये रूप आविष्कृत किये जा सकते हैं पर 4 इनकी तृप्ति मानसिक चेतना पर निर्भर है यह चेतना जागतिक पदार्थों से TE परिष्कृत नहीं हो सकती। इसके परिष्कार के लिए मन का प्रशिक्षण और - आत्मा का जागरण आवश्यक है। मानसिक संयम और आत्म-जागृति में व्रत-निष्ठा, व्रत-शक्ति और व्रत-विधान का बड़ा महत्व है। वर्तमान युग की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि आज हमारे जीवन, समाज और राष्ट्र के केन्द्र में वित्त प्रधान बन गया है। वित्त-लिप्सा ने व्रत-निष्ठा को निर्वासित कर दिया है। व्रत कहीं दिखाई देता है, सुना जाता है तो - | प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 487 4545454545454545451954514514614545556
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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