SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1597454145146145454545454545454545 तथ्य को अधिक काल तक दृष्टि से ओझल नहीं किया जा सकता। गम्भीर अध्ययन-मनन एवं विश्लेषण से जैन समाज सही स्याद्वादसम्मत निष्कर्ष पर पहुंची। ऐकान्तिक निश्चयवाद (अध्यात्मवाद) के हामी लोग भी भटक कर LEE पुनः सही मार्ग पर आरुढ़ हो आचार्य कुन्द-कुन्द के अनेकान्त मूलक, स्याद्वाद द्वारा प्रतिपाद्य सापेक्ष समन्वयवाद, सामंजस्यवाद का अनुसरण करने लगे है। अनादिकाल से कर्म मलों से लिप्त आत्मा को भेद विज्ञान के बल पर एक और अविभक्त बताना ही आ. कुंद-कुंद का प्रतिपाद्य विषय है। भइसीलिये अभेद दृष्टि उनने रखी है। अनेकान्त के अनुसार भेद दृष्टि भी TE है। किन्तु आ. कुंद-कुंद उसे गौड़ रखना चाहते हैं। इसका अर्थ यह नहीं - कि उन्हें भेद दृष्टि मान्य नहीं है। यदि ऐसा होता तो वे अपनी रचनाओं में भेद दृष्टि को मान्यता न देते। यह भेद दृष्टि ही व्यवहार नय है इसलिये कुंद-कुंद जी जहां गुण, स्थान, मार्गणा, कषाय स्थान, अध्यवसान, संयम स्थान आदि का निषेध करते हैं वहीं वे आत्मा में सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकचारित्र का भी निषेध करते हैं। "र्णावणाणं ण चरितं दंसणं जाणगो शुद्धों"। किन्तु ज्ञानदर्शन चारित्र का पिंड ही आत्मा है और आत्मा ही ज्ञान दर्शन चरित्र है। अतः आत्मा में ज्ञान दर्शन बतलाना भेद दृष्टि है। आ. | कुंद-कुंद इस भेद दृष्टि को अर्थात् व्यवहार दृष्टि को गौण रखना चाहते थे, इसलिये इसका निषेध करते थे। भेद दृष्टि को अभूतार्थ और अभेद दृष्टि को भूतार्थ कहने का प्रयोजन भी कुंद-कुंद का यही है। जब वे आत्मा को IT 21 एकत्व विभक्त बताना चाहते थे तब अभेद दृष्टि ही भूतार्थ हो सकती है। प इसकी प्रतिपक्षी भेद दृष्टि अभूतार्थ है। __"व्यवहारोऽभूयत्ये भूपत्थो देसिदो दु सुद्धणओ" भूयत्वमस्सिदो खलु सम्मा इट्ठी हवई जीवो।। इस गाथा के टीकाकार आचार्य जयसेन जी ने उक्त गाथा का अर्थ इस प्रकार किया है- व्यवहारनय भूतार्थ और अभूतार्थ है तथा शुद्धनय भी भूतार्थ और अभूतार्थ है। इनमें जो भूतार्थ का आश्रय लेता है वह सम्यक दृष्टि है। इस अर्थ से श्री कुंद-कुंद आचार्य व्यवहार को भूतार्थ भी कहना चाहते थे। और निश्चय को अभूतार्थ भी कहना चाहते थे। यह अभिप्राय इस गाथा से सिद्ध होता है। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ Pााााा ___463 . 559451955555
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy