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________________ 41414141414141414141414141414141 LE तक जितनी भी देश में पंच कल्याणक प्रतिष्ठाएं सम्पन्न हुईं वे प्रायः इन्हीं भट्टारकों के तत्वावधान में आयोजित हुई थीं। संवत् 1548,1664,1746, 1783, 1826, 1852 एवं 1861 में देश में जो विशाल प्रतिष्ठाएं हई थीं वे इतिहास में अद्वितीय थीं और उनमें हजारों मूर्तियां प्रतिष्ठापित हुई थीं। उत्तर भारत के प्रायः सभी मंदिरों में आज इन संवतों में प्रतिष्ठापित मूर्तियां अवश्य मिलती हैं। ये भट्टारक पूर्ण संयमी होते थे। इनका आहार एवं विहार पूर्णतः श्रमण परम्परा के अन्तर्गत होता था। मुगल बादशाहों तक ने इनके चरित्र एवं विद्वत्ता की प्रशंसा की थी। मध्यकाल में तो वे जैनों के आध्यात्मिक राजा कहलाने लगे थे, किन्तु यही उनके पतन का प्रारम्भिक कदम था। संवत् 1351 से संवत् 1900 तक इन भट्टारकों का कभी उत्थान हुआ, तो कभी वे पतन की ओर अग्रसर हए लेकिन फिर भी ये समाज के आवश्यक - अंग माने जाते रहे । यद्यपि दिगम्बर जैन समाज में तेरापन्थ के उदय से इन भट्टारकों पर विद्वानों द्वारा कड़े प्रहार किये गये तथा कुछ विद्वान् इनकी लोकप्रियता को समाप्त करने में भारी साधक बने, फिर भी समाज में इनकी आवश्यकता बनी रही और व्रत-विधान एवं प्रतिष्ठा समारोहों में तो इन भट्टारकों की उपस्थिति आवश्यक मानी जाती रही। शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, सकलकीर्ति, ज्ञानभूषण जैसे भट्टारक किसी भी दृष्टि से आचार्यों से कम नहीं थे क्योंकि उनका ज्ञान, त्याग, तपस्या और साधना सभी तो उनके समान थी और वे अपने समय के दिगम्बर समाज के आचार्य थे। उन्होंने मुगलों के समय में जैन धर्म की रक्षा ही नहीं कि किंतु साहित्य एवं संस्कृति की रक्षा में भी अत्यधिक तत्पर रहे। भट्टारक शुभचन्द्र को यतियों का राजा कहा जाता था तथा भट्टारक सोमकीर्ति अपने आपको आचार्य लिखना अधिक पसन्द करते थे। भट्टारक वीरचन्द्र महाव्रतियों के नायक थे। उन्होंने 16 वर्षों तक नीरस आहार का सेवन किया था। ये भट्टारक पूर्णतः प्रभुत्व सम्पन्न थे। वैसे ये आचार्यों के भी आचार्य थे - क्योंकि इनके संघ में 6 आचार्य एवं 33 उपाध्याय थे। 40 ब्रह्मचारी एवं 10 ब्रह्मचारिणियां थीं। इसी तरह मंडलाचार्य गुणचन्द्र के शिष्यों में 9 आचार्य, एक मुनि, 27 ब्रह्मचारी एवं 12 ब्रह्मचारिणियां थीं। मनि एवं आचार्य नग्न रहा करते थे, केवल भट्टारकों में कुछ-कुछ अपवाद आ गया था। इस परम्परा के LE अधिकांश भट्टारक साहित्य सेवी थे। भट्टारक रत्नकीर्ति. कुमुदचन्द्र, सोमकीर्ति, जयसागर, महीचन्द्र आदि पचासों भट्टारकों एवं आचार्यों ने साहित्य निर्माण में अत्यधिक रुचि ली थी। साहित्य निर्माण के अतिरिक्त साहित्य-सुरक्षा में 452 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 卐भyyyyyy9ESH
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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