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________________ 45556575 45345146147145146147959461454545945 卐 मोक्ष भी मिलता है। यदि राजा सुख चाहता है तो (काम के कारण) धर्म और ' अर्थ पुरुषार्थ नहीं छोड़ें; क्योंकि बिना मूल कारण के सुख नहीं हो सकता - - जो अपयश रूपी पंक को उत्पन्न करने के लिए वर्षा ऋतु के समान 51 हैं,धर्मरूपी कमलवन को निमीलित करने के लिए रात्रि के प्रारम्भ के समान है, जो अर्थ पुरुषार्थ को नष्ट करने के लिए कठोर राजयक्ष्मा के समान है, मुर्खजनों से जिसमें भीड़भाड़ उत्पन्न की जाती है और विवेकीजन जिसकी निन्दा करते हैं ऐसे काम के मार्ग में बुद्धिमान अपना पैर नहीं रखते हैं। अतः TE धर्म और अर्थ का विरोध न कर, काम सुख का उपभोग कर, राजधर्म कोना न छोड़ते हुए पृथ्वी का पालन करना चाहिए। राजा जब अनत्यसुलभ परस्पर 4 बाधा न पहुँचाने वाले धर्म, अर्थ एवं काम का संचय करता है, उनके अधीन TE रहने वाली प्रजा बड़े आदर के साथ उन्हें लगान देती है. यदि प्रमादवश कुछ । भूल हो जाती है तो उसका पश्चाताप करती है, उनकी आज्ञा का पालन करती है, विनयपूर्वक गुरुजनों के अनुकूल प्रवृत्ति करती है, प्रतिज्ञापूर्वक सदाचार TE का पालन करती है, विचारपूर्वक कार्य का प्रारम्भ करती है, उसके आचार सफल रहते हैं, उसकी उत्तम चेष्टायें दूसरों के प्रयोजन से युक्त होती हैं और उत्सवों की सब तैयारियाँ दान और पूजा सहित होती हैं। इन सब कार्यों सहित प्रजा राजा को उपार्जन के क्लेश से रहित धनसमूह, जन्म में उपयोग न देने वाले पिता, टिमकार से रहित नेत्र, पालन पोषण के खेद से रहित पुत्र, मूर्तिधारी विश्वास, चलने फिरने वाला कल्पवृक्ष अथवा अपने प्राणों की राशि के समान मानती है। 3. अरिषड्वर्गविजय-बाह्य शत्रु तो अस्थायी और दूरवर्ती है, अतः 4. छह प्रकार के आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहिए। क्रोध रूपी 1 अग्नि अपने आपको ही जलाती है. दूसरे पदार्थ को नही। इसलिए क्रोध करता। LE हुआ पुरुष दूसरे को जलाने की इच्छा से अपने शरीर पर ही अग्नि फेंकता - है। अपने आपको भी नष्ट करने वाले क्रोधीजन हर प्रकार का दुष्कर्म कर 51 सकते हैं। यदि अपकार करने वाले मनुष्य पर कोप है तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के नाशक क्रोध पर ही क्रोध करना चाहिए। रागासक्त जनों में योग्य-अयोग्य का विचार नहीं रहता है। समस्त कार्य छोड़कर स्त्रियों में । 51 आसक्त रहना समस्त अनर्थों से सम्बन्ध जोड़ने वाला है। समस्त सुर और 1 4 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर मणी स्मृति-ग्रन्थ FIFIFIFIFIFIFISISTFT LSLSLSLSLSLSLSLSLCLICU 195555
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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