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________________ 45454545454545454545454545454545 SH 51 उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तर्मुहुर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष है। यदि कोई अति 57 LF संकलेशवश संयमासंयम से च्युत हो मिथ्यात्व या असंयम को प्राप्त होकर : F- अन्तर्मुहूर्त काल या अविनष्ट वेदक-प्रयोग्यरूप काल से पुनः संयमासंयम को 1 प्राप्त करता है तो उसको दोनों करण होते हैं क्योंकि उसके स्थिति व अनुभाग-1 LF में वृद्धि हो जाती है। किन्तु स्थिति व अनुभाग में वृद्धि हुए बिना लघु अन्तर्मुहुर्त F- के द्वारा वापिस आकर संयमासंयम को प्राप्त होता है तो उसके कोई करण जनहीं होते। यह क्षायोपशमिक भाव है क्योंकि चार संज्वलनों एवं नव नोकषायों TE में से किसी एक भी कषाय के उदय होने से होता है। अर्थात् इनके सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से तथा इन्हीं के देशघाती स्पर्धकों के उदय से होता है। यदि प्रत्याख्यानावरण कषाय का वेदन करता हुआ संयतासंयत शेष चारित्रमोहनीय प्रकृतियों का वेदन न करे, तो संयमासंयमलब्धि क्षयिक बन जायें। स्पष्ट है कि यह क्षायोपशमिक भाव है। __ अनादि मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि तीनों करण करके और चौथे व पांचवे TE गुण स्थानवर्ती तथा पुनः पुनः संयम को प्राप्त करने वाले वेदकसम्यग्दृष्टि या वेदक-प्रायोग्य मिथ्यादृष्टि पूर्व के दो करण करके संयमलब्धि को प्राप्त होते हैं। जो जीव संयम से च्युत होकर असंयम को प्राप्त होकर यदि अवस्थित TE या अनवर्धित स्थितिसत्व के साथ पुनः संयम को प्राप्त होता है तो उस जीव TE - के न अपर्वकरण होता है, न स्थितिघात होता है और न अनभागघात होता 4 है।" | अकर्मभूमिज अर्थात् मलेच्छखण्डज भी दीक्षा धारण के योग्य होते हैं और वे भी संयमलब्धि को प्राप्त हो सकते हैं। इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि आर्यिकायें संयमलब्धि को प्राप्त नहीं हो सकतीं, अतः उन्हें संयमी नहीं कहा जा सकता। सम्यग्दृष्टि दिगम्बर मुद्राधारी मुनि ही संयमलब्धि का पात्र होता है। जो आर्यिकाओं को उपचार से संयमी कहा जाता है सो उपचार सत्य/यथार्थ नहीं होता20 | वीतरागियों के चारित्रलब्धि में जघन्य/उत्कृष्टपना नहीं पाया जाता क्योंकि कषायों का उदय ही परिणामों में तीव्रता/मन्दता पैदा करता है। जिनके कषायों का सर्वथा अभाव है उनके परिणामों में स्थिरता है कारण जघन्य या उत्कृष्टपना पाया जाना संभव नहीं है। । इन सबका विस्तृत वर्णन संयमलब्धि-अर्थाधिकार किया गया है। चारित्रमोहोपशामना अर्थाधिकार में उपशमश्रेणी पर आरोहक का विशद - वर्णन है। वेदकसम्यग्दृष्टि तीनों करण करके सर्वप्रथम अनन्तानुबंधी कषाय 1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर ाणी स्मृति-ग्रन्थ 395 IPLETELETELEPामानामा ELELELE F FIEFIFIFIFIFIE -FIF1ST
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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