SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 45454545454545454545454545454545 -1 वाक्य है : "सन्माइट्ठी पुण्णं ण होइ संसार कारणं णियमा। मोक्खस्स होइ हेदू जइ जिदाणं ण कुण।। (भाव संग्रह)। -सम्यग्दृष्टि का पुण्य संसार का कारण नहीं है, मोक्ष का हेतु है। स्पष्ट है इसी से इसे धर्म का उपादेय कहा है। देखिये : भावं तिविह पयारं सुहासुहं च सुद्धमेव णायव्वं। असुहं अट्टरउई सुहधम्मं जिणवरिंदेहि।17911 (भावपाहुड) IF यह शुभोपयोग चौथे गुणस्थान से वृद्धिंगत होता हुआ सातवें तक होता है। शुद्धोपयोग का साधक है। निष्कषाय भाव यानी वीतराग भाव का कारण है। परम्परा से मोक्ष हेतु है। पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया। रागादीहि विरहिया तम्हासा खाइगी ति मदा।।45।। -अर्हन्त भगवान् पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के फल ही हैं.... । समयसार जी 41 में आ. कुन्दकुन्द ने शुद्ध नय की दृष्टि से पाप और पुण्य को समान कहा ' है। यह कथन कर्म सामान्य की दृष्टि से है। शुद्धोपयोग की अपेक्षा दोनों TE अशुद्ध व हेय हैं। पाप को प्रयत्न करके छोड़ना पड़ता है, पुण्य स्वयं छूट जाता है। निचली (अपरम साधक) दशा में व्यवहार नय कार्यकारी है। इस F दृष्टि से पाप-पुण्य में महान अन्तर है। कहा भी है : वरक्य तवेहिं सग्गो मा दुक्खं होइ णिश्यतिरियेहि। छायातवद्वियाणपडिवालंताण गुरुमेयं ।25। (मोक्ष पाहुउ) 1 शुद्धोपयोग-रागादि रहित एकत्व परिणाम शुद्धोपयोग है। 'शुद्धश्चासौ उपयोगः - शुद्धोपयोगः । ज्ञान-दर्शन की कर्म संयोगज भावों से व्युपरत प्रवृत्ति शुद्धोपयोग ॥ है। इसे यथाख्यात चारित्र के भेद (निश्चय) रत्नत्रय, कारण-समयसार कह LS सकते हैं। यह पुण्य संपर्क से भिन्न स्फटिक मणि के समान अमेचक एक TS रूप उज्ज्वल होता है। ऐसे स्वरूप की श्रद्धामात्र का नाम शुद्धोपयोग नहीं - है। किन्तु प्रवचन-सार की गाथा नं.9 के अनुसार शुद्ध परिणति से शुद्धोपयोग LE कहते हैं।" ("शुद्धाय उपयोगः शुद्ध उपयोगः" यह व्युत्पत्ति प्रकृत में नियोजित नहीं की जा सकती)। यह सातवें सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर बारहवें 7 तक होता है। तेरहवें और चौदहवें में शुद्धोपयोग का फल होता है। शुद्धोपयोग 51 प्रश्नममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 345
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy