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गच्छन्ति केचित्स्वर्गे केचित् सिद्धयन्ति धूतकर्मणः ।। 22 ।।
|| श्रावकधर्म ।।
पंचाणुव्रतानि गुणव्रतानि भवन्ति त्रीणयेणम् ।
चत्वारि च शिक्षाव्रतानि सागार एतादृशो धर्मः ।। 23 ।। ||धर्म ऐसा नहीं होता है ।।
धर्मो न पठनेन भवेत् धर्मो न ।
धर्मो न मय प्रदेशे धर्मो न ।। 24 ।।
।। धर्म ऐसे होता है। ।
रागद्वेषौ द्वौ परिहरति यः आत्मनि य वसति । सो धर्मो जिनोक्तं य पंचमगतिं ददाति ।। 25 ।। ।। मोक्ष का फल ||
इति अष्टगुणो देवो जराव्याधिविवर्जितश्चिरं कालम् । जिनधर्मस्य फले न च दिव्यसुखं भुक्ते जीवः ।। 26 ।। ।। धर्म का अन्तिम मंगल ।।
जिने देवो जिने देवो जिने देवो जिने जिनः । दया धर्मो दया धर्मो दया धर्मो दया सदा ।। 27 ।।
आचार्य शान्तिसागर जी महाराज छाणी
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प्रथममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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