SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 454545454545454545454545454574 . आत्मोद्धारक जो जन होता, पर को सुख-साधन करते, पर पीड़ा जो देते जन को, जीवन भर दुःख को वरते, जो पर को कल पाता है, वह कभी नहीं सुख पासकता, सर्वत्र बिलखता है रोता, वह जीवन में है अकुलाता |1811 क्रमशः तपाराधना करके पूज्य हए जग जन में आप, प्राणी मात्र के शुभ चिंतक थे, उन्हें बचाया भव के ताप, वे शान्ति की प्रभा पुंज थे, जनमार्ग प्रकाशित कर पाये, कोटि हृदय के प्राण बने थे, हर मन उन तक बढ़ आये। ।।9।। आत्मधर्म के थे अनुरागी विना ताज के ऋषीवर थे, आत्मकोष से धर्ममणि को, विस्तारा श्री यतिवर ने, धर्महीन जो बने प्रमादी, नई चेतना भर उनमें, विमल आत्म सरिता की लहरें, सुखमय लहरायी जिनने ||10|| आयु का कण क्षण क्षण बीते, ज्यों मिटे बुलबुला पानी का, तन धन वैभव सब नश्वर हैं, यौवन रूप जवानी का, दुनियां की इस मृगतृष्णा में, मानव आत्मधर्म खोवे, मैं क्या हूँ क्या करना मुझको, करता क्या यह न सोचे ||11|| सच्चा सुख पाना गर तुमको, सत संयम को अपना लो, सम्यक्त्व रतन को पाना होगा, मुक्तिमार्ग को तुम पालो, जिनवाणी का सतत चिंतवन भव से पार लगाता है, तीर्थकर का ध्यान लगाले, मनवा क्यों पछताता है ||12|| जो आत्मविद्यधी है मानव, दुःखों से वे हैं घबड़ाते, अज्ञानतिमिर औ रागद्वेष से, मिथ्या बल हैं दिखलाते, धर्मराज जब जाग्रत होवे, शुभ धर्म कर्म के भाव उदय, श्री जिनपूजा गुरु वन्दना, आत्म विकास का भाग्योदय ||13|| मन से वाणी से कर्मों से, तुम शौच बाह्य अन्तर पाओ, संयम का अभिनव हो संचय, तक मन रोगी क्यों कर पाओ. विकथा से काम नहीं होता, कथनी तज करनी को देखो, गर रिक्त अभी तक है जीवन, तो धर्म कर्म को है सेवो 111411 सुख यहां वहां क्यों कर होगा, सख स्वात्मरूप में वसता है. परवशता दुख की है जननी, कल कल में बेकल रहता है, बालू से तैल नहीं रिसता, नभ में क्या पृष्ठों की क्यारी. स्वारथ वश पर में सुख मानें, दुईद्धि की है बलिहारी 11511 निज करनी से कांटे बोता, फलों की क्यों आश करे, पेड़ लगाया है बबूल का, आम कहां क्यों आश करे, यह मत समझो स्वर्ग वहीं हैं, जहां देव गण है रहते. प्रशममर्ति आचार्य शान्तिसागर भणी स्मृति-ग्रन्थ 270 -7 मा 55714455 195
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy