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________________ मागाटा - - - - - -IIIPI 卐 कि केवलदास जी जब संसार से विराग हुआ तभी से परिग्रह के प्रति उनकी ' आसक्ति बहुत कम हो गई थी। वे परिग्रह को साधना की सबसे बड़ी । बाधा मानने लगे थे। यही तो कारण था कि रेल-मोटर से यात्रा करते समय भी कभी आवश्यकता से अधिक द्रव्य का संकलन नहीं किया। यात्रा खर्च के प्रसंग को छोड़कर उन्होंने अपने पास पाँच रुपये से अधिक राशि नहीं । रखने का नियम ले लिया था। वास्तव में गृहस्थाश्रम की ऐसी निहता ही वा उन्हें अपनी दीर्घ साधना में सहायक होती रही। अब वे ब्रह्मचारी केवलदास हो गये थे। उन दिनों दिगम्बर साधुओं का एकदम अभाव था। न कहीं मुनि थे और न क्षुल्लक, ऐलक। इसलिये ब्रह्मचारी बनना ही बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। उसके अतिरिक्त ब्रह्मचारी बनने से उनको प्रवचन करने का अधिकार मिल गया। केवलदास यद्यपि अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन स्वाध्याय के बल पर उन्हें जैन सिद्धान्त का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो गया था। उन दिनों गम्भीर चर्चा का तो कोई प्रश्न भी TE नहीं था, इसलिये केवलदास के मुख से धर्म की चार बातें सुनकर लोग प्रसन्न हो जाते। इससे समाज में ब्रह्मचारी जी को सम्मान भी खुब मिलने लगा और एक बार भोजन नियम होने से समाज में उनके प्रति श्रद्धा जागृत हो गई। सम्मेदशिखरजी में ब्रह्मचारी की दीक्षा लेकर वहाँ से कितने ही गाँवों में धर्मोपदेश देते हुये वे वापिस केशरियानाथ ऋषभदेव आ गये।। केवलदास ऋषभदेव में कुछ दिन ठहर कर सागवाड़ा की ओर चल - पड़े। सागवाड़ा तो उनका प्रिय नगर था। जो प्राचीन मंदिरों का नगर तथा भट्टारकों का केन्द्र स्थान था। सागवाड़ा का जैन समाज भी आपसे परिचित था क्योंकि इसके पहिले भी यहाँ कितने ही बार आ चुके थे और समाज के बीच में दो-चार ज्ञान की बात सुना भी चुके थे। इसलिये जब ब्रह्मचारी बनकर 51 आये तो और भी श्रद्धास्पद बन गये। सागवाड़ा में कुछ ठहरने के पश्चात् । आप गढ़ी जा पहुँचे। वहाँ की समाज ने आपका अच्छा स्वागत किया। प्रतिदिन - - प्रवचन होने लगे। समाज पर आपका प्रभाव जमने लगा। पजा-पाठ होने लगे । और फिर अढाई द्वीप का मंडल मॉडकर उस पर पूजा होने लगी। अच्छा खासा मेला भरने लगा। आसपास के समाज के लोग भी आने लगे। एक पंथ दो काज होने लगे। पूजा की पूजा और ब्रह्मचारी जी का प्रवचन। गढ़ी गाँव वाले भी फूले नहीं समाये। चारों ओर ब्रह्मचारी जी की प्रशंसा होने लगी। 1595144145145454545454545454545454545545951451997 - - 158 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 959595959595959
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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