SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 45454545454545454545454545454545 57 लगभग 150 साधु सन्त दृष्टिगोचर हो रहे हैं। एक समय था पं. टोडरमल 1 15 जी, भूधरदास जी, बुधजन की, द्यानतराय जी, भागचन्द जी आदि मुनि के LE - दर्शनों के लिए तरसते थे और एक हम हैं जो मुनिजनों का सान्निध्य होते 51 हुए भी उन्हें द्रव्यलिंगी कहकर अपूज्य मानकर नरक-निगोद के पात्र बने IF रहे हैं। "धिक दुःखमा कालरात्रिम्।" व्यावर में दोनों आचार्यों का प्रेमपूर्वक मिलन हमें यह संदेश देता है कि विचार भेद होने पर भी हम सब अनेकान्त म दृष्टि सम्पन्न होने के कारण एकतापूर्वक प्रेमभाव से रह सकते हैं। आचार्य शान्तिसागर जी छाणी की तपस्या अद्वितीय थी। तीस दिन के लगातार उपवास आत्मशुद्धि के साधन थे। बड़वानी में उनके साथ हुई घटना का मुझे + स्मरण है। वे संत पुरुष थे उनके मन में सब समान थे, ___ संत हृदय नवनीत समाना, कहा कविन्ह पै कहा न जाना। निज संताप द्रवै नवनीता, परसंताप संत सुपुनीता" तुलसीदास के इस 4 TE कथन को हम आचार्य महाराज के जीवन में पूर्णतः पाते हैं। उनके श्री चरणों : में मेरा शत-शत वंदन। सनावद (म.प्र.) डॉ. मूलचन्द जैन शास्त्री विनम्र श्रद्धाञ्जलि श्रमण संस्कृति के परम उन्नायक, वीतराग धर्म प्रवर्तक. परमपूज्य 108 आचार्य श्री शान्तिसागर जी (छाणी) को जीवन में व्रत धारण करने के पूर्व TE अपने परिवार से संघर्ष करना पड़ा था। संत स्व कल्याण के साथ-साथ भव्य जीवों के कल्याणार्थ सदुपदेश देकर पावन ज्ञान गंगा प्रवाहित करते हैं। आज विश्व भौतिकता की चकाचौंध में धर्म की आभा को धूमिल करना चाहता है। सन्तों के प्रभाव से संसार कभी भी अछूता नहीं रहा है, अन्यथा इस जगत की भयावह स्थिति की कल्पना नहीं की जाती। कहा भी है : आग लगी संसार में प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 187
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy