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________________ 15454545454545454545454545454545 Y भांति-भांति के सूखे फल थाल में लिए खड़े हैं। जितने लोग उतनी बातें। परन्तु मुनि श्री, कि आंख उठाकर नहीं देख रहे और गांव की तीन परिक्रमा करके वापिस मंदिर जी में सामयिक में विराजमान हो गये। पूरे दिन का उपवास। दूसरे दिन फिर मुनिश्री पिच्छी कमण्डलु एक हाथ में लिए और दूसरे । हाथ की अंजुलि कंधे पर टिकाए, आहार के लिए निकले। गाँव की एक परिक्रमा पूरी हो गई। लोग अवसाद में डूब गये कि ऐसी कौन सी कठिन प्रतिज्ञा मुनिवर ने ले ली है, जिसका योग/निमित्त नहीं मिल पा रहा है। तीसरी परिक्रमा के लिए वे मुख्य बाजार से होकर निकले। तभी एक नुकीले सींगों वाला बैल बाजार से गुजरा। बाजार में एक गुड़ की दुकान लगी थी और गुड़ की भेली का ढेर लगाये दुकानदार बेचने की तैयारी में जुटा था। अप्रत्याशित रूप से वह बैल उस दुकान से होकर गुजरा और - जब गुड़ की भेली मुँह से न उठा पाया होगा तो उसे अपने नुकीले सींगों 15 में फंसा कर दौड़ पड़ा, एक दूसरे रास्ते से। दैवयोग से मनि श्री भी सामने से आ रहे थे और सींगों में गड फंसा देखकर निकट श्रावक द्वार पर पड़गाहन के शब्द सुनकर रुक गये। लोगों की खुशी का पार नहीं रहा, जब उन्होंने मुनि श्री को श्रद्धा सहित पड़गाहन कर आहार दान का पुण्य लाभ लिया। आहार के पश्चात् लोगों ने बड़े आग्रह 15 पूर्वक ली गई कठिन प्रतिज्ञा जानने की प्रार्थना की, जिसका दो दिन से योग नहीं मिल पा रहा था। मुनि श्री मुस्कराते हुए कहने लगे-योग तो साक्षात् आप सभी के सामने से गुजरा था। लोगों को बैल की घटना समझने में देर नहीं लगी। कितनी दुर्लभ प्रतिज्ञा। लेकिन जैन तपस्वी/मुनि "आहार" को भी कर्मों की निर्जरा का निमित्त बनाते है। तौलते हैं अपने जीवन को, तथा जीवन के प्रत्येक पाये हुए क्षणों को। और धन्य हैं ऐसे तपस्वी जो अपनी तपस्या से क्षणों को भी कैद कर लेते हैं। दुर्द्धर्ष योग/प्रतिज्ञा को कितना सहज में लेकर सहज बना लेते हैं। आ. शान्तिसागर जी म० (छाणी) उन महामनीषी संतों की परंपरा के ज्वलंत उदाहरण रहे, जिन्होंने "वीतरागता" को जीवन का मूल मंत्र बनाया था। "वसन" छोड़ दिये तो सारी वासनाएं भी गला दी। संसार के उपक्रमों से उदासीन, आत्मस्थ, चैतन्य के आराधक उन महान संत आत्मा को शत शत श्रद्धा नमन हमारे। बीना (म.प्र.) प्रो. पं. निहालचन्द जैन, + प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर पाणी स्मृति-ग्रन्थ 68 45454545454545454545454545454545
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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